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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

योऽन्तः सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥(५,२४)

जो योगी अपने अन्तरमें ही सुख और शान्तिकी प्राप्ति करता है, जिसे बाह्य सुखकी आवश्यकता ही नहीं बचती, जो अपने अन्तरमें ही रममाण है, जिसे अन्तरसे प्रकाश मिल रहा है वह योगी ब्रह्ममय हो चुका है और उसे ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त हो जाता है।

हम 'भगवद्गीता' का पाठ इसलिए करते हैं कि हमारे हृदयमें जो गीत सुप्त है वह प्रकट हो जाये। निर्वाण दो प्रकारके हैं, एक शरीरपात जिसके बाद बार-बार जन्म लेना शेष रहता है। दूसरा वह निर्वाण जो ब्रह्मनिर्वाण है। इसमें शून्यता है। किन्तु यह शून्यता जगतके प्रति है, अन्तरके प्रति ज्ञानमय आनन्द है।

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥(५,२५)

निर्दोष और निर्मल ऋषिगण ब्रह्मनिर्वाणको प्राप्त करते हैं। कैसे ऋषि? जिनकी शंकाएँ निःशेष हो गई हैं — जिनकी आत्मा कैदीकी तरह उनके हाथमें है और जो प्राणि-मात्र के हितमें डूबे हुए हैं, ऐसे ऋषि ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करते हैं।

इनके द्वारा किसी भी व्यक्तिके प्रति द्वेष तो आचरित हो ही नहीं सकता। ये दुष्ट-दुष्टके हितके लिए भी तत्पर रहते हैं। ये सारे जगत्की सेवा करते हैं। उसी व्यक्तिमें सेवाभाव साकार होता है, जिसके हृदयमें राम हों। जो व्यक्ति दूसरोंके हितके कामोंमें लगा हुआ है, वह दूसरोंका वास्तविक दुःख सहन ही नहीं कर सकता। हमने ऐसे पिता देखे हैं कि बेटेको हैजा हो गया तो पिताको भी हो गया। किन्तु वे अपने पुत्रमें आसक्त हैं। वे लड़केके आचरणको पसन्द न करते हों तो भी यदि उसे दुःख होता है तो वे उसे सहन नहीं कर सकते। सेवाभावी दूसरोंके दुःखको देखकर आँखोंसे सावन-भादों बरसाता है और [ शान्तचित्त रहकर ] उसके दुःखको दूर करनेका प्रतिक्षण प्रयत्न करता है।

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गुरुवार, १ जुलाई, १९२६

'सर्वभूतहिते रताः' के दृष्टान्तमें युधिष्ठिर और उनके कुत्तेका स्मरण किया जा सकता है। किसी एक स्वजनका कष्ट दूर करनेका ही नहीं, बल्कि जिस कारण से सारा जगत् कष्टमें पड़ा हुआ है उस कारणको खोजकर उसे दूर करनेका प्रयत्न किया जाना चाहिए। संसारका संसार मूर्च्छामें पड़ा हुआ है।

क्या हमें आत्माकी भी कुछ खबर है। थोड़ी-थोड़ी, कच्ची-पक्की। किन्तु कच्ची रोटी ही तो बादमें पक्की होती है।

हमारे रोगका कारण हमारा पेट नहीं है बल्कि हमारी जीभ है और उसका भी कारण है हमारा मन।