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'गीता-शिक्षण'

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥( ५,२६)

जो व्यक्ति काम और क्रोधसे छुटकारा पा गये हैं, जिनके चित्त स्थिर हो गये हैं, जो योगी साधनामें तत्पर हैं, जिन्होंने आत्माको पहचान लिया है, ब्रह्मनिर्वाण ऐसे व्यक्तियोंको घेरकर खड़ा रहता है।

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।।(५,२७-२८)

इन्द्रियके बाह्य विषयोंका बहिष्कार करके आँखको भौंहोंके बीच में स्थिर करके, नासिकाके भीतर रहनेवाले प्राण और अपान वायुको सम बनाकर प्राणायामके द्वारा श्वासका नियमन करके जिस व्यक्तिने मन और बुद्धिको वंशमें कर लिया है, जो मुनि मोक्षपरायण हो गया है, जिसने इच्छा, भय और क्रोधको छोड़ दिया है, वह सदा मुक्त है। बाहरकी क्रिया, अन्तरकी क्रियाका प्रतीक है। श्वास सम हो जाये, आँख भृकुटिके बीच में स्थिर हो जाये फिर भी यह पर्याप्त नहीं है। इसे अन्तरकी अवस्था- का चिह्न होना चाहिए। यहाँ एक श्लोक दूसरे श्लोकसे जोड़ा गया है।

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥(५,२९)

जो मुझे यज्ञ और तपश्चर्याका भोक्ता — समस्त संसारका महा ईश्वर प्राणि- मात्रका निःस्वार्थ मित्र जानता है, वह परमशान्ति प्राप्त करता है।

यदि ईश्वर प्राणिमात्रका मित्र है तो फिर उससे डरनेका क्या कारण। यदि ईश्वर हमारी समस्त सेवाओं और कर्मोंका भोक्ता है तो फिर सेवा और कर्म कभी निष्फल जायेंगे ही नहीं। यदि हमने वह सब उसके चरणोंमें डालकर किया और इसमें हमारी निःस्वार्थ बुद्धि हुई, तभी सूक्ष्म रूपसे यह विश्वास भी दृढ़ हुआ कि इसमें से निष्फल तो कुछ भी नहीं जाना है।

अध्याय ६

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शुक्रवार, २ जुलाई, १९२६

पिछले अध्यायमें यह प्रश्न उठाया गया है कि संन्यास और कर्मयोगमें से अधिक श्रेयस्कर क्या है। श्रीकृष्णने इसका उत्तर दिया है। किन्तु यह कोई ऐसी पहेली नहीं है जो सहज ही हल हो जाये। ईश्वरके सगुण और निर्गुण दोनों रूप सत्य हैं। इसी प्रकार जो शान्तिमें स्थित है और जो केवल काम ही काम करता रहता है, वे दोनों भी सत्य हैं। संन्यासी सेवाकर्म करके ही निलिप्त बनता है और कर्त्ता परमशान्तिका अनुभव कर्ममें लीन होकर ही कर सकता है। यदि किसी व्यक्तिको ऐसा