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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मिलकर एकरूप नहीं हो सकती। सलाह दी गई है कि आत्माको अपना नाश नहीं करना चाहिए; क्योंकि आत्मा इसमें समर्थ है। अविनाशी होनेके कारण वह पूरी तरह तो अपना नाश अवश्य ही नहीं कर सकती। जो यह कहता है कि मैं नास्तिक हूँ वह विरोधी वचनोंका उच्चारण करता है। जिस प्रकार हम संसारके जीवनको एक क्षण भी बढ़ाने में असमर्थ हैं उसी प्रकार हमारा आत्माको नष्ट करनेका प्रयत्न भी व्यर्थ है।

बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।(६,६)

जिसने आत्माको आत्माके द्वारा जीत लिया है, उसकी आत्मा आत्माका बन्धु है। हम जबतक संसारमें हैं, तबतक हमारे भीतर दो पक्ष पड़े हुए हैं — आसुरी और देवी। जबतक यह द्वन्द्व चल रहा है, तबतक शैतानको पीछे हटानेका प्रयत्न करते ही रहना पड़ेगा। देवासुर संग्राममें आखिरकार जीत तो देवोंकी होगी। जब संसार समाप्त हो जायेगा तो भगवान हँसेगा और पूछेगा कि अब शैतान कहाँ गया? नास्तिककी आत्मा शत्रुवत् है। सच बात तो यह है कि हम सबकी आत्मा हमारा शत्रु ही है। उसमें कलयुगकी मलिनता भरी हुई है।

जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥(६,७)

जो सर्दी और गर्मी, सुख और दुख, मान और अपमानके प्रति प्रशान्त है, जितात्मा है, — जिसके लेखे अपनी स्तुति और निन्दाका पानी ईश्वर रूपी सतह के नीचे-नीचे बहता हुआ चला जाता है - ऐसे प्रशान्त व्यक्तिके लिए परमात्मा समाहित है। जो अशान्तिकी मूर्ति है, जो अहिंसक न होकर हिंसक है; जो सत्यवादी नहीं, असत्यवादी है; उसके भीतर भी परमात्मा सम्यक् रूपमें ही स्थित है।

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मंगलवार, ६ जुलाई, १९२६

आत्मा तब सम्यक् रहती है जब हमारा बाह्य भी अन्तर जैसा होता है। शरीर सीधा रहे, और मन सीधा न हो, तो काम नहीं चलेगा। आज तो हमारा मन सीधा नहीं है। कुत्तेके चार पाँव हैं; हमारे दो हैं, फिर भी हमारा मन चार पाँवके जानवरोंकी तरह ही चलता है।

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः।(६,८)

यहाँ ज्ञानका अर्थ है शास्त्रोंका श्रवण, मनन और निदिध्यासन तथा विज्ञानका अर्थ है आत्माका अनुभव। ज्ञान होता है बुद्धिके द्वारा समझनेसे और विज्ञान वह है जो बुद्धिके द्वारा अनुभवमें ओतप्रोत हो जाता है। ज्ञान अर्थात् शास्त्र-ज्ञान और विज्ञान