पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२५
'गीता-शिक्षण'

अर्थात् अनुभव-ज्ञान । जब जीवन दयामय हो जाये और हमारे हृदयमें अहिंसाका सच्चा स्वरूप प्रकट हो जाये, तब कहा जा सकता है कि हमको अहिंसाका अनुभव-ज्ञान हो गया। जिस विद्यार्थीने दयाका अनुभव-ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसने उस हदतक आत्म- शुद्धि कर ली अथवा आत्मविज्ञान प्राप्त कर लिया। जिसका आत्मा इस ज्ञान-विज्ञानसे तृप्त हो गया है, जो कूटकी तरह स्थिर है अर्थात् जो अहरनकी तरह आघात सहन करता ही रहता है और टूटता नहीं है, अत्यन्त दुःख झेलते हुए भी जो अहरन की तरह अचल रहता है। जिसने इन्द्रियोंके ऊपर विजय प्राप्त कर ली है, ऐसा योगी 'युक्त' कहलाता है। वह ईश्वरके साथ जुड़ गया है, वह आत्मशुद्ध है; ऐसे योगीके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना तीनों एक-से ही हैं। आखिर ये तीनों वस्तुएँ मिट्टीमें से ही तो उत्पन्न हुई हैं। परिवर्तित रूपमें मिट्टी ही पत्थर, सोना, चांदी, हीरा, माणिक आदि हैं। वैसे ये सब मिट्टीके पर्याय हैं - ये सारे नाम मिथ्या हैं। क्योंकि अन्ततोगत्वा ये धूलकी धूल हैं। यदि हम लोभ छोड़ दें तो इन सबको हम एक जैसा ही मान सकते हैं ।

सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।

साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिविशिष्यते ।। (६,९)

मट्टी और सोनेके विषयमें जैसा कहा गया, इसी तरह जो सुहृद, मित्र और शत्रु, द्वेषके योग्य और प्रेमके योग्य, साधु तथा पापी, सभीके विषयमें समबुद्धि है, कहा जायेगा कि वही जगतमें विजयी हुआ। जो नियम जड़-जगतपर लागू है, वही चेतन- पर लागू होता है। जिस तरह सोनेमें और मिट्टीमें अन्तर नहीं है, इसी तरह साधु और पापी भिन्न-भिन्न नहीं हैं ।

साधु और पापी भी पर्याय । दोनोंके आत्मा है। साधुके ऊपरका मैल उतर गया है, पापीके ऊपर मैल चढ़ता ही जा रहा है। यदि इन दोनोंके प्रति समबुद्धि रहें तो उसी हालतमें हम विशिष्ट कर्तृत्व करते हुए कहलाये जायेंगे। दोनोंके विषयमें समबुद्धि किस तरह रहा जा सकता है, तुलसीदासका जीवन इसका पदार्थपाठ प्रस्तुत करता है।

'योगी युंजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।'

'एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ (६,१०)'

योगीको चाहिए कि वह निरन्तर एकान्तवास करता हुआ आत्माके साथ युक्त हो जाये । एकान्तवासका अर्थ है मनको एकान्तमें रखना । एकाकी और मनको वशमें रखकर निराशी अर्थात् वासनारहित होकर तथा अपरिग्रही बनकर आत्माको परमात्माके ध्यानमें युक्त करे। परिग्रहमें मानसिक परिग्रहका भी समावेश है। जो व्यक्ति एकान्तमें जप इत्यादि करके उसके द्वारा ऐहिक ऐश्वर्यकी इच्छा करता है, वह योगी नहीं है। और जो नित्य दान करता है, हमेशा धन-त्याग करता रहता है, उसकी अपेक्षा दो-चार लाख रुपया जोड़कर रखनेवाला कोई व्यक्ति अधिक अपरिग्रही हो सकता है; क्योंकि सम्भव है, नित्य दान करते हुए भी पहले सज्जनको पैसेका निरन्तर ध्यान रहता हो ।

३२-१५