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'गीता-शिक्षण '

तूफानी स्थिति कहेंगे। समुद्र और लहरोंमें अन्तर तो है ही नहीं। जीव-मात्र जलकी लहरें हैं अर्थात् जलके विकार हैं। हम यह न पूछें कि अपने भीतर हम लहरोंको उठने ही क्यों देते हैं। जीवधारी तो ईश्वरको अपने गुड्डे-गुड्डियोंकी तरह रूप देता है। लोग सम्पन्न हुए तो स्वर्णमूर्ति बना लेते हैं। इसी तरह की परिस्थिति है। लहरें जन्म हैं और उनका सिमट जाना मृत्यु है। इस तरह मानकर मनुष्य स्थिर हो जाता है और यदि संकल्प पैदा होते ही हैं तो उन्हें मनके भीतर शान्त कर देता है। पतंजलि कहता है कि इन लहरोंको शान्त करनेके बाद ही तुम समझ सकोगे कि चित्तका मालिक विकार है अथवा ईश्वर । चित्तवृत्तिको लक्ष्यमें रखकर ही श्रीकृष्णने चित्त और इन्द्रिय कहा है।

समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।

संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥

प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थित : ।

मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ।। (६,१३-१४)

शरीरको, शिर और ग्रीवाको सम करके तथा इन सबको अचल और स्थिर बनाकर आँखसे अपनी नाककी नोकको देखते हुए अन्य किसी भी दिशाको बिना देखे प्रशान्तात्मा होकर, भयको हटाकर, ब्रह्मचर्य-व्रतमें स्थित होकर, मनको संयमित करके, अन्तःकरणको मुझमें लीन करके योगीको चाहिए कि वह मेरे ध्यानमें तत्पर होकर बैठ जाये ।

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शुक्रवार, ९ जुलाई, १९२६
 

इन चार श्लोकोंमें योगकी क्रियाओंकी बात की गई है। मैंने जेलमें पढ़ा था कि इन क्रियाओंको साधनेमें कमसे-कम छः महीने लगते हैं। ये बाह्य क्रियाएँ हैं। सभी इनसे लाभ उठा सकते हों, ऐसा नहीं है। किन्तु शरीर और मन इतनी हठीली वस्तुएँ हैं कि लोकमें इन्हीं वस्तुओंको प्रधान पद मिल गया। इस तरहके विचारोंको जब सिद्धान्तोंका महत्त्व दिया जाता है तो तरह-तरह के प्रयोग होने लगते हैं। उदा- हरणके लिए धौलागिरीपर चढ़नेकी साधना। दो इतालवी तरुणोंने समस्त पृथ्वीकी पैदल प्रदक्षिणा करनेकी प्रतिज्ञा की थी। ये तरुण भी नहीं वास्तवमें किशोर ही थे । उन्हें अपने कार्यके अच्छे होनेका इतमीनान था। मैंने जब उनसे पूछा कि आप लोग इस प्रयोगके द्वारा सीखना क्या चाहते हैं, तो उनमें से एक बहुत चिढ़ गया। इससे उन बच्चोंमें जोखिम उठानेकी शक्ति आ जायेगी और उस शक्तिसे उन्हें व्यक्तिगत लाभ भी होगा, किन्तु सच कहें तो उनका वह समय व्यर्थ ही गया कहलायेगा । यहाँ प्राणायाम इत्यादिकी बात की गई है। यदि इस क्रियामें कोई पाखण्ड न हो, किसीको छलनेकी इच्छा न हो तो यह क्रिया ईश्वरमें ध्यान लगानेका साधन है। मैं यदि बाजारमें भी मौनव्रत लेकर बैठ जाऊँ तो वहाँके शोर-गुलकी तरफसे अपना ध्यान