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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खींच ले सकता हूँ। इसी तरह सामुदायिक प्रार्थनाके अवसरपर भी हम समाजके बीच बैठे हुए एकान्त-सेवन कर पाते हैं।

युंजनेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।

शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।। (६, १५)

इस तरह जिसका मन नियमोंमें स्थिर हो गया है, ऐसा योगी आत्माका अनु- सन्धान करते हुए परमात्मातक पहुँच जाता है और निर्वाण देनेवाली शान्तिको प्राप्त करता है।

किन्तु ब्रह्मनिर्वाणकी शान्ति तभी मिलती है जब हम भगवानके सुपुत्र हो ।

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।

न जाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन । (६, १६)

खूब खानेवालेके लिए योग नहीं है। वह अपनी साधनामें फलीभूत नहीं हो सकता । एकदम न खानेवाले, अनशनव्रतीका योग भी फलीभूत नहीं हो सकता। इसी तरह अतिस्वप्नशील, निद्राके वशवर्ती व्यक्तिका तथा जागते ही रहनेवालेका योग भी फलीभूत नहीं हो सकता ।

यह बात ऊपरके चार श्लोकोंके सन्दर्भमें कही गई है, इसे याद रखना चाहिए। बहुत खानेवाला और बहुत सोनेवाला कुछ भी नहीं कर सकता, यह सच बात है। अनेक व्यक्ति अघोरियोंकी तरह रहते हैं। वे कुछ भी नहीं साध सकते। किन्तु इससे उलटे पक्षके बारेमें भी विचार करना चाहिये। यदि कोई साधक भूखको बरदाश्त न कर पाता हो तो उसकी स्थिति वैसी ही होगी, जैसी हिन्दुस्तानके करोड़ों भूखे मनुष्योंकी है। चित्तको जो पोषण दिया जा सकना चाहिए सो वह नहीं दे पायेगा और इसलिए उसका मन ईश्वरमें नहीं लगेगा। ऐसा ही जागरणके विषयमें भी समझना चाहिए ।

यहाँ बात अनशन अथवा जागरण करनेके लिए तत्पर किसी सामान्य व्यक्तिके बारेमें नहीं है। यह श्लोक उस व्यक्तिके विषयमें है जो ऐसी साधनाके द्वारा योग करना चाहता है। किन्तु जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियोंपर किसी भी प्रकार काबू रख ही न पाता हो, जिसकी आँख मलिन दृश्य देखनेके लिए ही खुलती हो, जिसकी अन्य इन्द्रियाँ भी विषयके लिए ही लालायित रहती हों, उस व्यक्तिको चाहिए कि वह अधिकसे-अधिक उपवास करे, भले ही उपवास करते-करते उसकी देह छूट जाये । उसे कोई भी काम जगत्को दिखानेके लिए नहीं करना चाहिए। सत्य एक प्रकार- की श्रृंखला है, जिसने हम लोगोंको परस्पर बाँधकर रखा है। साधक स्वयंको धोखा नहीं दे सकता। जो ऐसा मानता हो कि में अपनी विषय-वासनाको किसी भी प्रकार रोक नहीं पाता उसे अनशनादि करना चाहिए। आजकल यह बात कही जा रही है कि सभी प्रकारके विषयोंको तृप्त किया ही जाना चाहिए। मेरा यह कहना है कि आत्मशुद्धिके लिए अपने प्रति जितनी सख्ती करना आवश्यक हो, सो पूरी-पूरी की जानी चाहिए। यदि किसीको अपनी आँख, कान, जीभ आदि इन्द्रियोंको चुपचाप सन्तुष्ट करते रहनेका लोभ होता रहता है तो उसे चाहिए कि वह अधिकसे-अधिक