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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।

निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा । (६,१८)

जब चित्त अच्छी तरह काबूमें आ गया हो, जब वह भली-भाँति नियमानुसारी हो गया हो, जब चित्त आत्मामें ही स्थिर हो गया हो और जब वह आत्माके इशारे- पर ही चलता हुआ सभी कामनाओंके प्रति निःस्पृह हो गया अर्थात् जब व्यक्ति निष्काम हो गया हो, तब वह युक्त कहलाता है।

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।

योगिनो यतचित्तस्य युंजतो योगमात्मनः ।। (६,१९)

जैसे दीपक निर्वात-स्थानमें निष्काम रहता है, योगकी साधना करनेवाले यतचित्त योगीकी दशा भी वैसी ही होती है। यदि हम चल-विचल हों तो जिस तरह दीपकको पवन बुझा देता है, उसी तरह विषयोंकी आँधी हमारा नाश कर देगी। वायुमें से दीपककी लौको पोषण मिलता है। इसी प्रकार आत्माको इन्द्रियों और चित्तमें से पोषण मिलता है। जिस तरह वायु स्थिर हो तो लौ उसके बलपर जागती रहती है, उसी प्रकार वायुरूपी चित्तवृत्तियोंको स्थिर रखनेसे आत्माको बल मिलता है।

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया ।

यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति

चित्तके शान्त हो जानेपर योगके सेवनके द्वारा चित्तपर काबू पा लेनेके बाद और शान्ति प्राप्त करनेके बाद जो आत्मामें आत्माका दर्शन करता है, अर्थात् जिसका मन आत्मामें लीन हो जाता है और जो आत्मसन्तुष्ट हो जाता है, वह योगी है।

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रविवार, ११ जुलाई, १९२६
 

वॉटने खोज की कि यदि हम भापको किसी एक जगहमें संचित करके उसे किसी छोटेसे रन्ध्रमें से निकालें तो चाहे जितना वजन खींचा जा सकता है। इसी तरह जो बच्चे अपनी सभी वृत्तियोंको रोक रखें तो वे चाहे जितना कष्ट सहन कर सकते हैं। यदि तमाम वृत्तियोंका निरोध करके हम उन्हें परमात्मामें लीन कर सकें, तो कितना लाभ हो ।

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्द्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् ।

वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः । (६,२१)

आत्यन्तिक सुख --शाश्वत सुखके आगे, इन्द्रियोंका सुख क्षणिक है। यह सुख अतीन्द्रिय है, इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है; बुद्धि-ग्राह्य है। यदि किसी व्यक्तिने बुद्धिसे ईश्वर- को जान लिया हो और उसके साथ ही अपने कर्त्तव्यको भी समझ लिया हो तथा