पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/२६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। योगका अर्थ है दुःखका वियोग । जो दुःख नहीं मानता, वह योगी है। यदि हमें कोई गाली दे तो हम उसे भी प्रभुके चरणोंमें समर्पित कर दें । इसी तरह यदि कोई हमारी स्तुति करे तो वह भी हम प्रभु-चरणोंमें ही रखें । यही अपरिग्रह है। जो व्यक्ति इसकी साधना करके मनको फूलकी तरह हलका बना लेता है, वह योगी है।

संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।

मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥

शनैः शनै रुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।

आत्मसंस्थं मनः कृत्व न किंचिदपि चिन्तयेत । (६,२४-२५)

संकल्पोंमें से उत्पन्न कामनाको पूरी तरह छोड़कर, इन्द्रियोंके समुदायको मनःपूर्वक चारों ओरसे नियममें रखकर, बुद्धिको निश्चयात्मक बनाकर और मनको आत्मामें युक्त करके जो व्यक्ति धीरे-धीरे उपराम प्राप्त करता है तथा किसी भी विचार नहीं पड़ता, वह व्यक्ति योगी है; अर्थात् वह सुख और दुःखके द्वन्द्वसे बच जाता है ।

यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् ।

ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥ (६,२६)

ऊपरके श्लोक में जो कुछ कहा गया है, श्रीकृष्णने उसे ही यहाँ अधिक स्पष्ट किया है। उन्होंने अर्जुनसे मनको आत्मामें स्थिर करनेके लिए कहा। अब इसके बाद कहनेको शेष ही क्या है। किन्तु फिर भी और समझानेका प्रयत्न किया है।

मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँसे उसे खींचकर वश में करके उसे आत्मा के वशमें लाना चाहिए ।

वायु-शास्त्रवेत्ता वायुके वेगको नाप सकते हैं। बिजलीकी गतिको भी नापा जा सकता है; किन्तु मनकी गतिको नापनेका कोई यन्त्र नहीं बनाया जा सका है। यह मन चंचल है और अस्थिर है, उसे जगह-जगहसे खींचकर अपने ही स्थानपर अर्थात् आत्मामें स्थापित करना चाहिए ।

प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।

उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ॥ (६,२७)

ऐसे शान्त मनवाला वह योगी जिसका सारा रजस्, अहंकार, अभिमान शान्त हो गया है और जो ब्रह्ममय हो गया है, उत्तम सुखको प्राप्त कर सकता है।

युंजन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।

सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते

जो योगी अपनी आत्माको इस तरह परमात्मासे जोड़ लेता है, जिसके पाप नष्ट हो जाते हैं और जो ब्रह्मका संस्पर्श करनेवाला बन जाता है, वह योगी अनन्त सुख भोगता है ।