सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।। (६,२९)
जिसे योग सिद्ध हो गया है, और जो सर्वत्र समदर्शी है वह अपनेको सब प्राणियोंमें देखता है और सब प्राणियोंको अपने में देखता है। ऐसा समदर्शी योगी ब्रह्मानन्द प्राप्त कर पाता है।
[ १०६ ]
कलका श्लोक महत्त्वपूर्ण है। योगी वह नहीं है जो श्वासोच्छ्वासको बन्द करके बैठ जाता है; बल्कि वह है जो समदर्शी है। जो दूसरे प्राणियोंको अपने में देखता है, वह योगी है। ऐसा योगी मोक्ष पाता है। समदर्शीका अर्थ हुआ वह व्यक्ति जो अपनेको जिस दृष्टिसे तौलता है, उसी दृष्टिसे दूसरेको भी तौले । यही बात नीचेके श्लोकमें भी समझाई गई है :
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ (६,३०)
जो सबमें मुझको और मुझमें सबको देखता है, मैं उस व्यक्तिकी दृष्टिसे कभी ओझल नहीं होता। वह व्यक्ति मुझे सदा प्रिय है; वह मेरी दृष्टिसे कभी ओझल नहीं होता। जैसे रामचन्द्रजीकी दृष्टिसे हनुमान ओझल नहीं थे।
[१०७ ]
सबको अपने भीतर देखना सरल नहीं है। आगेके श्लोकमें इसकी कुंजी यह बताई गई है कि दूसरोंको और अपनेको ईश्वरके माध्यमसे देखो। जिस तरह हिम पानीमें से बनता है, इसी प्रकार हम सब पानीसे उत्पन्न हुए हैं और पानीमें मिल जायेंगे । ओलेका जो टुकड़ा यह समझ गया कि में पानी हूँ, वह पानीमय ही है। ईश्वर और ईश्वरकी माया परस्पर ओतप्रोत है; फिर क्या ब्राह्मण, क्या चाण्डाल और क्या शूद्र । इसीलिए भारद्वाज ऋषिने रामसे पूछा कि आपने रावणका वध किया अथवा अपनी मायाका । राम हमारे भीतरसे कभी अदृश्य नहीं होते और हम रामके निकट कभी अदृश्य नहीं होते।
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ (६,३१)
जो योगी सर्वभूतोंमें निवास करनेवाले मुझको भजता है; एकत्वको प्राप्त करनेके बाद जो ऐसा अनुभव करता है कि मैं ब्रह्म हूँ और सारा संसार ब्रह्ममें स्थित है तथा इस भावनाके साथ जो मुझे भजता है वह व्यक्ति सारी बाह्य क्रियाएँ करते हुए भी मुझमें ही लीन रहता है ।