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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

'चलन वलन अवनिपर वाकी, मनकी सुरत आकास ठिरानी'- यद्यपि वह धरती- पर चलता-फिरता है, किन्तु उसकी दृष्टि आकाशपर स्थिर रहती है। जिस व्यक्तिने अपनी दृष्टि इस तरह हृदयाकाशपर स्थित कर ली है, वह मनुष्य चलते-फिरते, खाते-पीते, सारी स्थितियोंमें मुझमें ही लीन है। ऐसे पाखण्डी पड़े हुए हैं जो कहते हैं कि हम व्यभिचार करते हैं, किन्तु हमारा क्या; हम तो योगी हैं। तुम मायामें लिप्त हो और इसलिए कह सकते हो कि अमुक वस्तु ग्राह्य है, अमुक त्याज्य । किन्तु हमारे लिए किसी बातका विधिनिषेध नहीं है। यदि हम उनसे कहें कि तुम्हारे पास जो सोना है वह हमें दे दो और पत्थर ले लो तो वे हमारी इस बातको नहीं सुनेंगे और कहेंगे कि हम ज्ञानी हैं, सोना हमारे पास शोभा देता है । जिस व्यक्तिने अपने हृदयके सभी मैल धो डाले हैं, उस व्यक्तिके कर्मोके विषयमें वह स्वयं नहीं कहता, जगत कहता है । जगत उसके विषय में कहेगा कि वह ईश्वरमें लीन है।

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥ (६,३२)

जो व्यक्ति दूसरोंको अपनेसे संयुक्त करके आचरण करता है वह दूसरोंकी आव- श्यकताको अपनी आवश्यकता मानकर पूरी करेगा; दूसरोंको अपने जैसा मानकर बर्ताव करेगा और आत्माको जगतके साथ ओत-प्रोत कर देगा। सच्चा योगी वही व्यक्ति कहलायेगा जो जगतके सुखसे सुखी और जगतके दुःखसे दुखी होता हो । जो 'मैं' को समाप्त करके शून्य हो गया है, जिसने अपनेपनको बिलकुल मिटा दिया है, वही व्यक्ति इस तरहकी बात कह सकता है। जिसने अपना सब कुछ ईश्वरार्पण कर दिया हो वही व्यक्ति ऐसा माना जा सकता है। किन्तु यह तो एक बड़ी कठिन बात है। इसलिए अर्जुन इसका स्पष्टीकरण चाहता है

{{c|योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन |}

एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थिति स्थिराम्

हे मधुसूदन, आपने समताका जो योग बताया, मैं इसकी गति नहीं समझ सकता । इसकी स्थिर स्थिति में अपनी चंचलताके कारण देख नहीं पाता। रेलगाड़ीमें बैठे हों तो हम बाहरके दृश्यको स्पष्ट नहीं देख पाते। यह बात वैसी ही है ।

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवदृढम् ।

स्याहँ निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ (६,३४)

हे कृष्ण, मन चंचल है। वह हृदयको मथ डालता है। वह बलवान है और अपनी चंचलतामें दृढ़ है। यह बात तभी समझी जा सकती है जब हम उसका निग्रह करें। उसका निग्रह तो वायुके निग्रहकी भाँति अतिशय कठिन है।

असंशयं महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम् ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ (६,३५)

हे महाबाहो, निश्चय ही मनका निग्रह करना कठिन है। किन्तु यह दुष्कर बात भी अभ्यास और वैराग्यसे सम्भव हो सकती है ।