असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ (६,३६)
जो मनुष्य संयमी नहीं है उसके लिए योग-साधन दुष्प्राप्य है, किन्तु जिसने अपनेको अपने वशमें कर लिया है वह व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक इस उद्देश्यको साध सकता है ।
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'गीता 'का अर्थ चाहे जितना भी जान लिया गया हो किन्तु यदि हृदयमें शौर्य न हो तो हम किसी भी बातमें सफल नहीं हो सकते। हमारे जितने मोह हैं उन सबको दूर करके हमें आत्मशुद्धिके लिए प्रयत्न करना चाहिए। जगत् और कृष्णके बीचमें अर्जुनकी स्थिति एक सेतुके जैसी हो गई है। इतने ज्ञानार्जन श्रीकृष्णके सहवासमें रहनेके कारण ऐसे प्रश्नोंकी आवश्यकता उसे नहीं पड़नी चाहिए। किन्तु जगत्की दृष्टिसे वह पूछता है :
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धि कां गति कृष्ण गच्छति । (६,३७)
वह श्रद्धावान् व्यक्ति जिसका चित्त योगसे चलायमान हो गया है, जो अयति अर्थात् अल्पप्रयत्नशील है और निर्जन स्थानमें जाकर बैठनेके बाद भी जिसका चित्त बाह्य सृष्टिकी ओर चला जाता है, ऐसा व्यक्ति योगसंसिद्धिको न पाकर किस गतिको प्राप्त होता है ? उसकी ऊर्ध्वगति होती है अथवा अधोगति ?
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥ (६,३८)
सम्भव है कि कोई व्यक्ति अनेक शास्त्रोंके अध्ययनके द्वारा अपनी उन्नति करनेका प्रयत्न कर रहा हो और फिर भी उसके मनमें यह विचार आ जाये कि नहीं, मुझे तो अमुक एकान्त स्थानमें जाकर ईश्वरके चरणोंमें सिर रखना और सत्याग्रह करना है। किन्तु जो व्यक्ति जगह-जगह चित्तको भटकाते हुए संशयग्रस्त हो गया है वह घटासे विच्छिन्न किसी बादलकै टुकड़ेकी तरह नष्ट हो जाता है मानो वह बिना पैंदीका लोटा है। ऐसा व्यक्ति जिसने ब्रह्मके मार्गको ग्रहण तो किया है किन्तु जो इस तरह चलायमान हो गया है वह नाशको प्राप्त होता है अथवा नहीं ?
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्यपपद्यते ।। (६,३९ )
हे कृष्ण, आप ही मेरे इस संशयको निःशेष कर सकते हैं। मेरे इस संशयको निवारण करने योग्य कोई दूसरा नहीं है ।