न लेते हुए भी रामनाम लेता है और उसे रामनामका फल प्राप्त होता है । जगत्में ऐसे बहुत लोग हैं जिनके लिए अन्न ही ब्रह्म है। ऐसे भूखोंके लिए अन्न न मिलनेतक स्वयं परिश्रम करना, उनसे परिश्रम कराना और उन्हें अन्नकी प्राप्ति करा देना धर्म है । उक्त संन्यासीने मुझसे यह प्रश्न किया, सो वैसे तो ठीक है; किन्तु उसे यह नहीं मालूम था कि मैं कर्ममें अकर्म कर रहा हूँ ।
इस छठवें अध्यायमें यह बताया गया है कि कर्म करते-करते यज्ञवृत्ति कैसे सध जाती है और साथ ही उसमें आत्मसंयमका साधन भी सूचित किया गया है। ऐसा नहीं है कि हरएकके लिए एक ही साधन जरूरी हो । किन्तु यह साधन कठिन है इसलिए प्रश्न किया गया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि प्रयत्न निष्फल हो जाये और व्यक्ति उभयभ्रष्ट हो जाये । इसके जवाबमें कहा गया है कि 'नहीं, कल्याण-बुद्धिसे किया गया कर्म निष्फल नहीं जाता ।'
[ १११ ]
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युंजन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥ (७,१)
हे पार्थ, अब मैं तुझे वह बताऊँगा जिसे जानकर मेरे प्रति आसक्त है, मेरे परायण है वह व्यक्ति जो केवल मुझे ही आश्रय मानता है और जो तदनुसार योगकी साधना कर रहा है, योगका साधन करते-करते समग्र रीतिसे मुझे जान सकता है।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते
मैं तुझे इस योगका ज्ञान अनुभव अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान सहित विशेष ज्ञान, अशेष रीतिसे बताऊँगा । उसे जानने के बाद जगत्में कुछ भी जाननेको शेष नहीं बच रहेगा ।
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥ (७,३)
हजारों मनुष्योंमें कोई विरला मनुष्य ही सिद्धिके लिए प्रयत्न करता है और प्रयत्न करनेवाले उन सिद्धोंमें से कोई विरला ही मुझे यथार्थ रूपमें जानता है। इसलिए कहते हैं कि यह अमूल्य वस्तु है, पर ऐसी वस्तु नहीं है कि चाहे जो इसे प्राप्त कर ले।
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा
पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, बुद्धि और अहंकार ये आठ वस्तुएँ मेरी आठ प्रकारकी विभिन्न प्रकृतिको बनाती हैं।