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'गीता-शिक्षण '

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृति विद्धि में पराम् ।

जीवभूतां महाबाहो ययदं धार्यते जगत् ॥ ( ७, ५ )

इनसे भी भिन्न मेरी एक दूसरी प्रकृति है। उसे तू परा प्रकृति समझ । यह जीवभूतों में इस भाँति पड़ी हुई है कि अपरा (जड़) से बढ़कर है और इसके ऊपर जगत् निर्भर है।

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बुधवार, २१ जुलाई, १९२६१
 

शत्रुको हमें अपने समान मानना है । हम शत्रुसे अपने प्रति किस प्रकारका व्यवहार चाहते हैं, इसे सोचकर देखना चाहिए। हम चाहते हैं कि अगर इच्छा करने- पर वह हमारे टुकड़े-टुकड़े कर देनेकी शक्ति रखता हो, तो भी वह हमारे प्रति न्याय- बुद्धिसे ही काम ले। इसलिए यदि हमने किसीको बन्दी बना रखा हो तो उसपर आवश्यकतासे अधिक बन्धन नहीं लगाये जाने चाहिए. भले ही वह बन्दी हमारा शत्रु ही क्यों न हो । उसे जानसे मारनेका तो प्रश्न ही नहीं हो सकता। यह तो एक लौकिक नियम ही है। किन्तु हम तो अन्ततोगत्वा यह चाहते हैं कि हम 'गीताजी में वर्णित ज्ञानको प्राप्त करें, दो चार व्यक्तियोंकी सेवा करें, चरखेका काम पूरा करें और गोरक्षा करें, इसलिए भले ही हम साँपोंसे डरते हैं और उक्त बातोंके लिए अपने जीवनकी रक्षा करना चाहते हैं, हमें साँपोंको भी सताना तो नहीं ही चाहिए । मैं यह नहीं कहता कि तुमने पकड़े हुए साँपको कोई ज्यादा तकलीफ दी। किन्तु तुमने यह भी नहीं किया कि उसे सिर्फ उठा लिया हो और कहीं दूसरी जगह ले जाकर छोड़ दिया हो। यह एक विचारणीय बात है। हम उसे पकड़ें किन्तु इस तरह नहीं कि उसे चोट पहुँचे; हम उसे सहूलियतसे पकड़ें। उसे परेशान न करें। इसपर विचार करना इसलिए आवश्यक नहीं है कि विद्यार्थियोंने जैसा किया उससे किशोरलाल भाईकी भावनाको दुःख पहुँचा, बल्कि 'गीताजी के शिक्षणके अनुसार आचरण करनेकी दृष्टिसे हमें इस विषयमें विचार कर लेना चाहिए। मन-बहलावके विचारसे तो साँपको कदापि नहीं मारा जाना चाहिए। बिल्लीके बच्चेको जमीनपर पटकने में आनन्द आनेकी सम्भावना तो होनी ही नहीं चाहिए। यह अज्ञान है और क्रूरता भी है। बालकको भी ऐसा सोचना चाहिए कि यदि कोई मेरे साथ ऐसा बरताव करे, तो क्या हो । 'गीता'ने चाण्डाल और अंगीके प्रति भी समान रीतिसे बरताव करनेके लिए कहा, सो किसलिए कहा होगा ? जीवनमें इस बातका अनुभव करके देखना चाहिए। जो ऐसा विचार किये बिना जीवन-यापन करता है, उसका 'गीता' पढ़ना व्यर्थ है। सर्पादि- को दुःख देनेमें आनन्द नहीं मिलना चाहिए। हम उसे दबायें अथवा पकड़ें तो यह मानकर कि इसके बिना गति नहीं है और लाचारीमें ऐसा करना पड़ता है। हमें

१. आज विद्यार्थियोंने एक साँपको पकड़ लिया था और उसे थोड़ा तंग भी किया था। इसलिए गांधीजीने प्रारम्भमें एक विद्यार्थीसे "आरमौम्येन सर्वत्र .” (७,६) वाला श्लोक पढ़वाया और उससे उसका अर्थ बतानेके लिए भी कहा। बादमें जो कुछ समझाया वह आगे दिया गया है।