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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सोचना चाहिए कि जिस देहके रक्षणके विचारसे यह कर रहे हैं यदि उसके ध्यानसे यह सब न करें तो कितना अच्छा हो । हमें अपना यह विचार पक्का कर लेना चाहिए कि जितना विवश होकर करना पड़ेगा उतना ही करेंगे; उससे अधिक शरीरके लिए नहीं करेंगे। यह सब बालोंके सफेद हो जानेके बाद सोचने या करने की बातें नहीं हैं। हमें तो यौवन-धनका तत्काल अच्छेसे-अच्छा उपयोग करना है। । भगवानने तो कहा है कि हजारों मनुष्योंमें से कोई विरला आत्मसिद्धि और आत्मशुद्धिके लिए यत्न करता है और इन हजारोंमें से कोई विरला ही मुझे यथार्थ रीतिसे जान पाता है। इसलिए हमें बहुत अधिक प्रयत्न करना है। हमें अपने-आपको उन हजारोंमें से एक मानना है । हम तत्त्ववेत्ता बनें। उन हजारोंमें से उक्त एक और सफल व्यक्ति हम बनें, ऐसी हमें इच्छा रखनी है।

एतद्योतीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।

अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥ (७,६)

अपरा प्रकृति --दृश्य जगत्के भीतर रहनेवाला जीव और परा प्रकृति अर्थात् अदृश्य प्रकृति, ये दोनों समस्त जीवोंके कारण हैं। क्योंकि मैं समस्त जगत्का प्रभव हूँ और प्रलय हूँ, अर्थात् उत्पत्ति और विनाशका कारण हूँ, इसलिए तू ऐसा मानना छोड़ दे कि तू किसीका नाश करने जा रहा है।

मत्तः परतरं नान्यत्किचिदस्ति धनंजय ।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव

मेरे सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं और यह सब मुझमें उस तरह पिरोया हुआ है जिस तरह धागेमें मणिगण ।

जिस तरह हम मनके सूत्रपर आधारित रहते हैं इसी प्रकार सारा जगत् मुझपर आधारित है।

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥ (७,८)

मैं पानीमें रस हूँ । चन्द्र और सूर्यमें व्याप्त तेज हूँ, 'वेदों' में प्रणव अर्थात् ओंकार हूँ । आकाशमें शब्द हूँ। मनुष्योंमें पौरुष भी मैं ही हूँ ।

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ।। (७, ९)

में पृथ्वीमें पवित्र गंध हूँ, अग्निका तेज हूँ, समस्त प्राणियोंका जीवन हूँ, तपस्वियोंका तप हूँ ।

बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।

बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥ ( ७, १० )

मुझे तू सभी भूतोंका सनातन बीज जान । बुद्धिशाली व्यक्तियोंकी बुद्धि और तेज- स्वियोंका तेज भी मैं ही हूँ ।