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बलं बलवतां चाहं कामरागविवजितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।। ( ७,११)
मैं बलवानोंका बल हूँ -- वह बल जो काम और रागसे हीन है। जनकराजकी शक्ति काम और रागसे अछूती शक्ति थी। मैं प्राणियोंमें धर्मसे अविरुद्ध, धर्मानुकूल काम हूँ। धर्मानुकूल अथवा धर्मसे अप्रतिकूल कामका अर्थ हुआ मोक्षकी कामना अथवा प्राणियों- के दुःखनाशकी कामना । यदि हम दूसरोंके दुःखोंके नाशकी इच्छा करें तो हमारे दुःखका नाश भी हो जाये । प्राकृत भाषामें ऐसा कहना ठीक है; किन्तु संस्कृत भाषामें तो इसे 'महास्वार्थ' कहा गया है। यहाँ 'महास्वार्थ' का अर्थ है समस्त प्राणियोंके मोक्षसे सम्बन्धित स्वार्थ । ऐसी स्वार्थ-दृष्टिसे किया गया जबर्दस्त प्रयत्न जगत्को मोक्षकी दिशामें ले जाता है।
ये चैव सात्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि । ( ७,१२)
सात्विकी, राजसी अथवा तामसी, जो-जो भाव जगत्में हैं, वे मेरे हैं अथवा मुझमें से उत्पन्न हुए हैं। यद्यपि मैं अलिप्त हूँ, मैं उन भावोंमें नहीं हूँ, [ तथापि ] वे मुझमें हैं। हम कहते हैं कि जो-कुछ है, वह सब ईश्वरको अर्पण करें अर्थात् जो खराब है वह भी उसके चरणोंमें रखें । यह द्वन्द्व ही अविभाज्य है। इसलिए इस द्वन्द्वका ही अर्पण कर देना है। पापको धक्का देना है तो पुण्यको भी धक्का दे देना है। पुण्यका संचय कर रखनेमें भी परिग्रह है।
शरीरधारी रामके विषयमें हम कह सकते हैं कि उनके शरीर है भी और नहीं भी है। उनमें विरोधी गुण - साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण- भरे हुए हैं। ईश्वर बुरेके लिए बुरा है। सचमुच तो वह करुणाकी मूर्ति ही है किन्तु वह अपने नियमका उल्लंघन कर ही नहीं सकता। इसलिए दुखोंका संहार करनेवाला भी कहा जाता है ।
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्
इन तीन प्रकारके गुणयुक्त भावोंसे मोहित होनेके कारण जगत् मुझे इन भावोंसे अलग और अव्ययके रूपमें नहीं जानता।
वास्तवमें देखें तो जो सात्विक भावसे ग्रस्त हैं, यही कहा जायेगा कि वे भी मोहमें पड़े हुए हैं ।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥ (७,१४)
मेरी यह माया देवी और इसको तरना कठिन है। किन्तु जो व्यक्ति मेरी शरणमें आ जाता है वह इसे तर जाता है।
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