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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

'भागवत' में कहा गया है कि इस कलिकालमें जो 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का जप करेगा वह इस संसारसे पार हो जायेगा । रामनाम भी ऐसा ही है ।

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः । (७,१५)

दुष्कर्म करनेवाले मूढ़ मनुष्य मेरा आश्रय नहीं लेते। उनके ज्ञानका मायाके कारण हरण हो गया है। ऐसे लोग आसुरी भाववाले होते हैं ।

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शुक्रवार, २३ जुलाई, १९२६
 

चतुविधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ । (७,१६)

चार प्रकारके उत्तम कर्म करनेवाले व्यक्ति मेरा भजन करते हैं; (१) आतं अर्थात् दुःखी, (२) जिज्ञासु अर्थात् ज्ञानेच्छुक अर्थात् मोक्षार्थी, (३) अर्थार्थी अर्थात् संसा- रिक पदार्थोंके लिए भजन करनेवाला और (४) ज्ञानी अर्थात् वे जो खुदाके बंदे बनकर उसकी भक्ति करते हैं, जिन्हें ईश्वरके पाससे कुछ लेना ही नहीं है। वे तो ईश्वरसे कहते हैं कि तेरी प्रजाके रूपमें तुझे भजना ही हमारा धर्म है। हमें इसकी कोई चिन्ता नहीं है कि तू कुछ देता है अथवा नहीं ।

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिविशिष्यते ।


प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः (७,१७)

इनमें जो ज्ञानी है वह हमेशा मुझसे युक्त रहता है। मेरे साथ सन्धि किये रहता है। 'तू ही तू ही' कहता हुआ भक्त बनकर रहता है। मुझे इस तरह रटता है मानो इस्लामका कलमा पढ़ रहा हो । यह ज्ञानी उक्त चार प्रकारके भजनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ है।

मीराबाई महान भक्त थीं। किन्तु वे ज्ञानियोंकी पंक्तिकी भक्त ही थीं। श्रीकृष्ण कहते हैं, ऐसे ज्ञानीका में अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मेरा अत्यन्त प्रिय है। इस तरह मानो हम आशिक माशूककी जोड़ी हैं ।

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ ( ७, १८)

उक्त चारों प्रकारके भक्त उदार हैं, भले ही उनमें से कोई मन्त्र-तन्त्र करनेवाला हो। क्या यह अच्छा नहीं है कि अपना समय पाप करते हुए गुजारनेकी बजाय वे ईश्वराराधनमें बिताते हैं ।

राजाके महलमें डाका डालनेके बदले क्या राजाके द्वारपर भीख माँगना अधिक अच्छा नहीं है। दुखी व्यक्तिकी प्रतिष्ठा राजाके सामने उपस्थित होनेमें ही है। कितने ही दुखी व्यक्ति ईश्वरकी शरण लेनेके बदले लौकिक व्यक्तियोंकी शरण लेते