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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अन्तवतु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥ ( ७,२३)

अल्पबुद्धिवाले ये लोग जिन देवताओंको भजते हैं उन्हें उनसे नाशवान् फल मिलता है। मुक्ति तो एक ही प्रकारके व्यक्तिको मिलती है। देवताओंकी पूजा करनेवाले देवताओंके दरबारतक पहुँच पाते हैं। मेरे भक्त सीधे मेरे पास चले आते हैं।

अव्यक्तं व्यक्तिमापनं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥ (७,२४)

ये बुद्धिहीन लोग मेरे अव्यक्त स्वरूपको नहीं जानते। इस दृश्य जगत्के पीछे जो अदृश्य वस्तु पड़ी हुई है वे उसे भी दृश्य ही मान लेते हैं। किन्तु मेरा जो श्रेष्ठ भाग है (पर भाग है), वे उसे बिलकुल ही नहीं जानते। वे मुझे अव्यय और पुरुषोत्तम रूपमें नहीं जानते। उदाहरणके लिए सूर्य-पूजनको लो । सूर्य तेज और प्रकाशका दाता है। यदि हम उसे भजें तो हम ईश्वरकी विभूतिके टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें भजने लगेंगे। किन्तु हमें यह चाहिए कि हम ईश्वरकी उत्तम, अदृश्य शक्तिको पहचानें । यह दृश्य जगत् चित्र विचित्र है। देवतागण तो रंग बदलते रहते हैं, पर ईश्वर रंग नहीं बदलता ।

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रविवार, २५ जुलाई, १९२६
 

हमारी बुद्धि ऐसी तेजस्वी नहीं है कि वह आत्मापर पड़े हुए आवरणको छिन्न-भिन्न कर दे और आत्मा मुक्त हो जाये । जिसे आवरणको हटा देने की इच्छा होती है वह अबुद्धि नहीं होता। जबतक गहराईमें नहीं जाते तबतक हमारी कल्पना दश-दश शिरों- की बात सोचती है। हो सकता है कि फिर कोई होशमें आ जाये और सोचे कि क्या आत्माके सिर हो सकते हैं ! और तब सम्भव है उसे 'गीता' में पढ़ी हुई बातका ध्यान आ जाये, दूसरे अध्यायके श्लोक याद पड़ जायें और वह कहे कि आत्मा तो अव्यक्त है, अच्छेद्य है, अक्लेद्य है। श्रीकृष्ण कहते हैं, बुद्धिहीन व्यक्ति मुझे अपने नन्हे पैमानेसे नापना चाहता है। वह मेरी मूर्ति बनाता है और ऐसा मानकर चलता है मानो वह मूर्ति ही मैं हूँ ।

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥ ( ७,२५ )

मैं सबके लिए प्रकाश नहीं हूँ । सब मुझे नहीं पहचान सकते क्योंकि मैं अपनी योगमायासे ढँका हुआ हूँ । यदि ईश्वरने यह माया न रची होती तो इस दृश्य-जगत्में हम बचे नहीं रह सकते थे। तब फिर उसने इस दृश्य जगत्की रचना किसलिए की। यह तो ऐसी ही बात हुई जैसे कोई घड़ी यह पूछे कि घड़ी बनानेवालेने मुझे क्यों बनाया है। कृतिको कर्त्ताके प्रति दृढ़ श्रद्धा रखनी चाहिए। मायासे आवृत्त मूढ़ पुरुष मुझे अज और अव्यय होनेके कारण नहीं जानते।