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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

और यज्ञका स्वामी भी मैं हूँ अर्थात् जो यह जानते हैं कि मैं विश्वमात्रका कर्त्ता-हर्त्ता हूँ और जिनके ऊपर इस चक्रका असर नहीं पड़ता, वे व्यक्ति योगयुक्त हैं।

अध्याय ८

[११८ ]

बुधवार, २८ जुलाई, १९२६
 

सातवें अध्यायमें श्रीकृष्णने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की अर्थात् ज्ञान और विज्ञान दोनोंको समझाया और कहा कि इन दोनोंको जाननेके बाद तेरा अकल्याण नहीं हो सकता । अपरा प्रकृति, दृश्य स्वरूपको इन्द्रियों तथा बुद्धिसे जाना जा सकता है; किन्तु परा प्रकृति तो इन्द्रिय, बुद्धि, अहंकार आदिको छोड़कर ही जानी जा सकती है। यदि हमें ईश्वरके पर स्वरूपको जानना हो तो थोड़े-बहुत अंशोंमें हमें वैसा बनना चाहिए। हमारे भीतर भी अपर और पर दोनों स्वरूप हैं। उनमें से हमें अपरका दमन करके परके सम्बन्धका ज्ञान बढ़ाना चाहिए ।

पहले अध्यायका मुख्य प्रश्न यह था कि सगे-सम्बन्धियोंको मार कैसे सकते हैं। इस प्रश्नका उत्तर देनेमें सात अध्याय लगे। अब आठवाँ शुरू होता है। अर्जुनमें भेद- बुद्धि और मोह व्याप्त हो गया था । यह सारा प्रयत्न उसे ही हटानेका है। इस तरह भगवान कृष्ण अर्जुनको परा और अपरा प्रकृतितक समझा चुके हैं।

तद्ब्रह्म किमध्यात्मं कि कर्म पुरुषोत्तम ।

अधिभूतं च कि प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ।। (८,१ - २)

अर्जुन पूछता है कि आपने ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत इत्यादिकी बात की। यह सब क्या है और यह अधियज्ञ क्या है। ये सारी बातें युक्तचित्त व्यक्तिके द्वारा प्रयाणकालमें जानी जा सकती हैं, इसका क्या अर्थ है ?

[ ११९]

श्रीकृष्ण इसका जवाब देते हैं :
 

गुरुवार, २९ जुलाई, १९२६

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।

भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥ (८, ३)

जो अक्षर है और जो उत्तम है, वह ब्रह्म है। स्वभाव अध्यात्म है । जो हम सबका ईश्वर है वही इस अध्यात्मको उत्पन्न करनेवाली शक्ति है । भूतोंकी उत्पत्ति और वृद्धि त्यागसे होती है और उसे कर्मकी संज्ञा दी गई है।