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हम सारे जगत्के साथ शारीरिक रूपसे नहीं जुड़ सकते, किन्तु उससे आध्यात्मिक सम्बन्ध रख सकते हैं ।
परोपकार वृत्ति न रखनेवाला व्यक्ति केवल अपना ही नहीं दूसरोंका भी नुकसान करता है। यदि माँ गर्भ-स्थित बालकका रक्षण न करे तो स्वयं भी मरे और बच्चा भी मर जाये । उसका रक्षण करना उसका कर्म है और यह त्यागका एक स्वरूप है। माता नियताहार न करे, मलिन विचार और मलिन आहार करे तो माता और शिशु दोनोंकी हानि होती है। इसी तरह हमारी भी हानि होती रहती है। हम कह सकते हैं कि हमारे बिगड़नेसे जगत्का क्या बिगड़ता है। किन्तु उससे जगत्का और हमारा - दोनोंका बिगड़ता है।
कर्मका अर्थ उत्पत्ति करनेवाला कर्म तो कदापि नहीं है। व्यासजीका 'गीता' और 'महाभारत' लिखना उनके लिए एक महान्विसर्ग (त्याग) था । यह सम्भव नहीं हो सकता कि 'गीता' जैसा रत्न, कर्म शब्दसे उत्पत्तिकी स्थूलसे-स्थूल क्रियाका सूचक हो ।
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥ (८, ४)
हे देधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन, इस जगत्में जो कुछ नाशवन्त है, वह अधिभूत है। देवताओंका स्वामी वह पुरुष अधिदैव है। इस शरीरमें निवास करनेवाला में वासुदेव ही अधियज्ञ हूँ अर्थात् में सर्वयज्ञोंका अधिष्ठाता और सर्वयज्ञोंका फलदाता हूँ । जो भाव- नाएँ जीवका आश्रय लेकर बनी रहती हैं, वे भावनाएँ नाशवन्त हैं।
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लैटिन भाषाकी एक कहावत है कि नरकका रास्ता अच्छे इरादोंसे पटा हुआ है। केवल शुभ संकल्पोंसे काम नहीं हो पाता; किन्तु नारकीय व्यक्ति समझता है कि प्रयत्न किये बिना केवल शुभ विचारसे ही सफलता मिल जाती है। हम जितना देना चाहते हैं वह सब दे तो नहीं सकते; किन्तु जितना लेना चाहते हैं उतना ले अवश्य सकते हैं। मैं देनेकी चाहे जितनी कोशिश करूँ, यदि तुम उसे ग्रहण ही न करो तो मैं क्या कर सकता हूँ । यदि तुम सब पूरा-पूरा प्रयत्न करो तो दूसरोंके समय- की हानि न हो । चार बजे उठनेका प्रयत्न करें तो क्यों नहीं उठ सकेंगे ? यदि कभी प्रयत्न करते हुए हम खप भी जायें तो क्या होता है। मर मिटनेकी हदतक प्रयत्न करनेवालेको भी मोक्ष मिलता है ।
कृष्ण अधियज्ञ हैं फिर भी उन्होंने मनुष्य होनेपर जीवन-भर कर्म किया; इसलिए हम उनकी अर्चना करते हैं। पाण्डव सो जाते थे किन्तु वे तो सदा जागते ही रहते थे।