पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/२७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२४८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हर बातके लिए पाण्डवगण सदा उनका मुँह ताकते थे। वैसे उन्हें न कौरवोंका नाश करना था, न पाण्डवोंका विकास । विकास तो उन्हें जिस बातका करना था, उसी बातका करना था। उन्होंने कर्म करते-करते शरीरको क्षीण कर दिया किन्तु फिर भी उनका शरीर तेजस्वी बना रहा। प्रयत्न शब्द तो साधारण है किन्तु प्रयत्न वस्तु ऐसी है कि उसका निश्चय करते ही फल मिलने लगता है। कृष्ण निश्चय कर चुके थे कि पाण्डवोंकी जय होनी चाहिए, इसलिए पाण्डवोंकी जय तो निश्चित हो ही चुकी थी। कृष्ण तो साक्षात् परोपकारकी मूर्ति थे। उन्हें किसीकी कुछ हानि नहीं करनी थी। हम जानते हैं, जब परशुराम कर्णकी गोदमें सिर रखकर सोये हुए थे, उस समय किसी भयंकर कीड़ेने कर्णको काटा, यहाँतक कि लहूकी धार बह निकली। किन्तु कर्ण टससे मस नहीं हुआ। क्या कर्ण आदमी नहीं था। हम भी उसीकी तरह शुभ संकल्प करके प्रयत्न करें और प्रयत्न करते हुए भी उसका फल कृष्णार्पण करते जायें।

अर्जुनको देहभृतोंमें अर्थात् शरीरधारियोंमें श्रेष्ठ कहकर कृष्णने सूचित यह किया है कि तुझे तनिक भी घबरानेकी आवश्यकता नहीं है।

[ १२२ ]

रविवार, १ अगस्त, १९२६
 

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ।। (८,५)

मरते समय जो व्यक्ति मेरा ही स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह मुझे ही प्राप्त करता है ।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ (८,६)

व्यक्ति जिस विशिष्ट भावको भजते हुए अपना देह छोड़ता है, उस भावसे आविष्ट होनेके कारण व्यक्ति उसी भावको प्राप्त होता है। इसीलिए कहा गया है। कि जैसा करोगे वैसा भरोगे ।

हमें अपने विचार तनिक भी मलिन नहीं होने देने चाहिए। माता-पिता हमें मनुष्य-आकृति देते हैं। इतना ही नहीं, अपने शरीरसे मिलती-जुलती आकृति देते हैं। फिर जो सूक्ष्म फेरफार होते हैं, उन्हें हम समझ सकते हैं। हमें जो बीमारियाँ होती हैं उनका कारण भी हम स्वयं ही हैं, ऐसा मानना चाहिए। जिस मनुष्यका मन इतना बलवान हो जाये कि आसपासके संयोगोंका असर उसपर पड़नेके बदले स्वयं उसका असर उनपर पड़ने लगे तो उसे रोग नहीं होता। इसलिए हमारे रोगका कारण हमारा पाप है, ऐसा माननेमें ही हमारा भला है। जिसने मनःपूर्वक रामनाम लिया होगा, भला नामकी उस दीवारको लाँघकर दुःस्वप्न कैसे आ सकते हैं? यदि आ जायें तो समझना चाहिए कि हम रामनाम केवल मुँहसे ले रहे थे । मनमें थोड़ा-बहुत भय भी बच रहा हो, तो वह एक बहुत बड़ा विकार है और उसके