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'गीता-शिक्षण'

भी परिणामस्वरूप हम अनेक प्रकारकी व्याधियोंके शिकार हो जाते हैं। इस तरह हम जैसे-जैसे अपने विकार छोड़ते चले जायेंगे, उसी अनुपातमें हमपर रोगोंका हमला भी कम होता चला जायेगा। जिनके नाक-कान और अन्य सभी अंग सड़ चुके थे, ऐसे व्यक्ति भी चंगे हो गये हैं। स्वयं शरीरके भीतर स्वास्थ्य प्राप्त करनेकी शक्ति पड़ी हुई है। औषधियोंके बलपर व्याधिमुक्त हो जाना एक अस्थायी अवस्था है, किन्तु जो व्यक्ति विकारोंको जीतकर ईश्वरपरायण हो गया है, वह तो यही कहेगा कि मुझे वनस्पति आदिसे बनी हुई दवाओंका उपयोग करके नीरोग नहीं होना है। मेरे भीतर जो विकार पड़े हुए हैं, उनका नाश ही मेरा आरोग्य है। यदि उन अनिष्ट विकारोंसे लड़ते-लड़ते उसका देहपात हो जाये तो वह उसका भी स्वागत करता है। जिसपर राक्षसी विचार हावी हो जाता है, उसका रूप एक दिनमें ही विकराल हो जाता है। एक बार एक व्यक्ति मेरे पास आया । उसपर खूनका अभियोग था। उसे देखते ही मैंने कहा कि तुम मुझे धोखा दे रहे हो । वह व्यक्ति तुरन्त ही वहाँसे भाग गया ।

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मंगलवार, ३ अगस्त, १९२६
 

विचार तो कर्म है। वह इतना प्रबल होता है कि कभी-कभी उसका परिणाम कृत कर्मसे भी भयंकर होता है। अगर कोई व्यक्ति किसीके हाथमें पिस्तौल पकड़ा दे और उससे जबरदस्ती हत्या करवाये तो यह नहीं कहा जा सकता कि हिंसा गोली चलानेवालेने की है। क्योंकि यह तो उससे जबरदस्ती करवाया गया है। जिस व्यक्तिके विचारमें हिंसा है और जो दूर बैठकर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसे सम्पन्न कराता है, उसकी 'अहिंसा' बड़ी भयंकर है। फिर स्वयं हमारे अन्तरमें शत्रु बैठे हुए हैं और वे हिंसा कराते हैं। जबरदस्त प्रयत्न और विचारके बावजूद व्यक्ति पाप-कर्ममें रत हो जाते हैं। हमारे काम और क्रोध ही ऐसे कर्म करानेवाले हैं। किन्तु प्रयत्न और विचारका उपयोग तो होता ही है । यमराज ही यदि किसी व्यक्तिके हाथमें शस्त्र देकर उससे हिंसा करायें तो उसके लिए यह हिंसा बन्धनकारी नहीं होती। क्योंकि ऐसे व्यक्तिके मनमें तो सदा नारायणका ही ध्यान रहेगा, और अन्तकालमें उसका उद्धार ही है। सामान्य रीतिसे यह बात व्यवहारमें नहीं सघती। क्योंकि हमारे सद्विचार भी बेहोश व्यक्तिके विचार होते हैं। विचारकी धारा तो ज्ञानपूर्वक सतत चलनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति चलते-फिरते नारायणको ही रटता रहता है। वह अपना कोई काम नहीं करता। उसके सारे काम तो अन्तर्यामी करता है।

इन दो श्लोकोंमें श्रीकृष्णने समस्त तत्त्वज्ञान भर दिया है। व्यक्ति जैसा सोचेगा वैसा ही उसे मिलेगा ।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।

मयपितमनोबुद्धिममिवैष्यस्य संशयम्

इसलिए तू सब समय मेरा स्मरण कर और युद्ध कर । यदि अपना तन, मन और धन कृष्णार्पण करके तू युद्ध करेगा तो तू मुझे ही प्राप्त करेगा ।