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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥ (८,८)

निरन्तर अभ्यास करनेवाला और अपने मनको कहीं भी भ्रमित न होने देने- वाला तथा मेरा चिन्तन करते रहनेवाला पुरुष, परमदिव्य पुरुषको अर्थात् मुझको प्राप्त करता है ।

कोई इसका यह अर्थ न समझे कि यदि मरते समय प्रभु स्मरण कर लिया, तो काम चल जायेगा । जिसने बचपनसे ही इस तरहका प्रयत्न किया होगा वही जीतेगा, दूसरे सब हार जायेंगे। हम लोगोंने डेलागोआबेसे स्टीमर पकड़ी और श्री गोखलेको विदाई दी। गोखले केबिनमें बिलियर्डका खेल खेल रहे थे। मैं नहीं खेल रहा था। उन्होंने सोचा कि मुझे शायद यह पसन्द न हो। इसलिए उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या तुम ऐसा समझते हो कि मुझे इस तरह खेलना अच्छा लगता है ? मैंने उत्तर दिया, नहीं; आप तो यह बताना चाहते हैं कि हमारा देश इसमें भी कुशल है । इस तरह उनका वह खेल कृष्णार्पण था । मैं इस बातको जानता था। मैंने नाचना सीखा; किन्तु वह भी किसी शौकके कारण नहीं । मेरा मन आज भी यही कहता है। मेरा मन्शा तो अपनेको सब तरह 'जेंटलमैन' सिद्ध करके दिखाना था। इसी तरह हरएक काम कृष्णार्पण किया जाना चाहिए। प्राप्त कर्त्तव्य ही इस भावसे किया जा सकता है; जिस कामको हम भाग-दौड़ करके हथियाते हैं, वह इस भावसे नहीं किया जा सकता। यदि आश्रमके लोग विभिन्न काम करते हुए भी अपने कर्मोको कृष्णार्पण बुद्धिसे करते हों, तो कहना चाहिए कि वे सब एक ही काम कर रहे हैं । किन्तु इसके लिए सबके विचारोंमें सम्पूर्ण सामंजस्य होना चाहिए। यदि केवल एक ही व्यक्तिका मन कताईमें लीन हो, और दूसरोंके मन भटक रहे हों तो कहना पड़ेगा कि वे कताई नहीं कर रहे हैं।

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बुधवार, ४ अगस्त, १९२६
 

कवि पुराणमनुशासितार

मणोरणीयांसमनुस्म रे द्यः ।

सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप -

मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥

प्रयाणकाले मनसाचलेन

भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।

भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् ।

स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।। (८,९-१०)

ऐसा व्यक्ति उस परमदिव्य पुरुषको प्राप्त होता है और सब-कुछ जानता है । जो पुरुष अनादि है, जो जगत्का नियामक है, जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म है उस पुरुषको प्रयाण-कालमें, अर्थात् मरणके समय स्मरण करना चाहिए ।