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'गीता-शिक्षण'

होता। किन्तु विज्ञान कहता है कि वह अशाश्वत है। गहराईसे सोचें और ऊपरी ढंग- से सोचें तो भी • दोनों - -दृष्टियोंसे वह अशाश्वत है। शाश्वत तो राम-नाम ही है। जन्म-मृत्यु अशाश्वत हैं, इतना ही नहीं, वे दुःखके भण्डार भी हैं।

यह किसलिए? इसलिए नहीं कि 'भगवद्गीता' में कहा गया है; बल्कि इसलिए कि हमें आज भी इस बातका अनुभव हो सकता है कि ये वस्तुएँ दुःखके घर हैं। अन्तकालमें सद्गति प्राप्त करनेकी कुंजी यह है कि हम प्रतिक्षण इस बातका अनुभव करें कि यह संसार दुःखमय है और इसलिए हमें इसके प्रति मोह और राग-द्वेषका त्याग कर देना चाहिए ।

केवल बुद्धिसे भी यह समझमें आ सकता है कि यह संसार दुःखमय है। यदि हम इस बातका विचार करें कि प्राणिमात्रका जन्म किस तरह होता है तो जन्मकी प्रक्रिया ही एक ऐसी बात है कि हमें जन्मसे नफरत हो जाये । 'पापोऽहम्', 'पाप- संभवोऽहम्' कहनेका यही अर्थ है । सब-कुछ मायासे आच्छादित है इसलिए प्रतिक्षण जहाँ घृणाका अनुभव होना चाहिए, वहाँ हम सुखका अनुभव करते हैं। ऐसी एक भी इन्द्रिय नहीं है जिसके द्वारा हम इस दुःखका ठीक-ठीक अनुभव कर सकें। उत्पत्ति- के बादकी स्थिति भी प्रारम्भसे अन्ततक एक लम्बे कारावासकी ही स्थिति है। हम बालकका लाड़-प्यार करते हैं और यह हमें अच्छा लगता है; क्योंकि बालक खिल- खिल हँसता है । जेलमें पड़ा हुआ कैदी भी इस तरह हँसता है । अभ्यासके कारण हम इस पराधीनतामें आनन्द मानने लगते हैं। किन्तु वास्तवमें हम इस स्थितिमें एक क्षण भी शान्तिका अनुभव करते हों ऐसा नहीं है । शरीरकी बनावटपर ही ध्यान दीजिए । इसके असंख्य छिद्रोंमें से मैल ही निकलता है। जो कुछ निकलता है सब कुछ घिनौना है। यदि आदमी विचार करने बैठ जाये तो इनमें से एक भी वस्तु उसे छूने-जैसी नहीं लगेगी। किन्तु आखिर यह कैदखाना ऐसा स्थान तो है ही जिससे हम छूट सकते हैं, और जो ऐसा मानने लगेगा वह उसका कमसे-कम उपयोग करेगा । किन्तु इससे मुक्ति पानेका उपाय आत्महत्या करना नहीं है। आत्महत्या करनेवालेको फिर जन्म लेना पड़ता है, बल्कि उसे तो फिरसे जन्म लेनेकी अधिक आकांक्षा भी बनी रहेगी। देहकी उत्पत्ति इत्यादिका विचार ही संयम-मार्गकी उत्पत्तिका कारण है। देह प्यार-दुलार करने योग्य नहीं है, बल्कि दमन करने योग्य है। यदि देह इस बातको समझ ले कि मैंने जो-जो माँगा वह मुझे कभी नहीं मिला तो वह हमसे त्रस्त हो जाये और अपने आप हमसे छूटकर चली जाये । श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि लोग अस्तित्वके इस दुःखको समझ लें तो वे उन्हें ऐसी स्थितिमें पहुँचा देंगे जो इससे कई दरजे अच्छी होगी। परमगतिमें ऐसी कोई बात नहीं है कि उसमें पहुँचनेके बाद हम इस जीवनमें रहते हुए जिस शाश्वत सुखका अनुभव करते हैं उसका भी नाश हो जायेगा। वैसे सुखका नाश नहीं होगा, बल्कि वह तो हजारों गुना होकर मिलेगा। इस भावका अनुभव करनेवाला व्यक्ति संसारमें लीन नहीं होता, [ ईश्वरके साथ ] तन्मय हो जाता है। वह संसारमें अपनेको और अपनेमें संसारको