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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

देखता है तथा आत्मौपम्यकी भावनाको ही सर्वत्र व्यवहार करता है। अहिंसाकी उत्पत्ति भी इसी विचारसे हुई है कि जब संसार ही दुःखमय है तो हम किसीको क्या दुःख दें।

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावतिनोऽर्जुन ।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥ (८,१६)

ब्रह्मके भुवन समेत सारे भुवन पुनः जहाँके तहाँ जाकर लीन हो जायेंगे। सूर्य, चन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु इत्यादि सब नाशवन्त हैं; तथापि जो मेरे पास आ जाता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता ।

ऊपर जो मैंने विवेचन किया था, उसमें भी यही बात कही है।

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शनिवार, ७ अगस्त, १९२६
 

कलके अन्तिम श्लोकमें महान् काव्य निहित है। समुद्रके समान ज्ञान एक बिन्दुमें समाहित कर दिया गया है और हम इस ज्ञानको जितना अधिक अनुभव करेंगे, यह काव्य उतना अधिक खुलेगा । यह ऐसा काव्य है जिसमें कवि कल्पनाके पंख लगाकर उड़ रहा है। शरीर और इन्द्रियका बन्धन उसके निकट शेष नहीं बचा है। कानसे जो सुना है, आँखसे जो देखा है, उसे आधार बनाकर वह कल्पना करता है और तर्कके भी परे जाकर वह कहता है कि इन्द्रियोंके द्वारा जो-कुछ ज्ञान प्राप्त होता है वह सब मन की ही उपज है। इसलिए वह कल्पना करता है कि जब हम नाशवन्त हैं तो अखिल ब्रह्मांड भी नाशवन्त ही है। जो कुछ भी हमारी कल्पनामें आ सकता है, वह सब नाशवन्त है, परिवर्तनशील है। जो व्यक्ति सत्यके प्रति समर्पित है, वह सत्यको केवल इसीलिए नहीं छोड़ दे सकता कि जगत्का मत उसके मतसे मेल नहीं खाता । सारा जगत उसकी बात न माने तो भी वह सत्य नहीं छोड़ेगा, क्योंकि उसका सत्य संसारपर आधारित नहीं है, और न वह कोई नाटक कर रहा है। इसलिए श्रीकृष्ण यहाँ योगेश्वरकी हैसियतसे यह कह रहे हैं कि हम ब्रह्मलोकमें सुख मानते हैं किन्तु वहाँ भी सुख नहीं है।

इसलिए वे अर्जुनसे कहते हैं कि तू इन सब भुवनोंको छोड़कर उस भुवनमें आ जहाँ मेरा निवास है। यह एक ऐसी बात है जो हमारी कल्पनामें नहीं आ सकती । किन्तु जो कल्पनामें नहीं आती, उसका अस्तित्व तो है । यदि व्यक्ति इसका प्रयत्न करते हुए प्राण छोड़े तो फिर उसका जन्म नहीं होता।

सहस्रयुगपर्यन्तमह्यं द्ब्रह्मणो विदुः ।

रात्रि युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ (८,१७)

जो पुरुष यह जानते हैं कि ब्रह्माका एक दिन हजार युगोंकी अवधिवाला है और हजार युगोंसे ब्रह्माकी एक रात्रि बनती है, वे, रात और दिन अर्थात् कालके तत्त्वको जाननेवाले हैं।