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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मयं

लगाया ही करता है । तकुएकी गतिसे हजार गुना गतिशील है यह चक्र ! पृथ्वीका प्रलय होना निश्चित ही है । पृथ्वी नाशवन्त है, फिर भी प्रलयान्तमें कोई न कोई तो बच ही जायेगा ।

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥ (८,१९)

हम चाहें अथवा न चाहें जब रात आती है तब प्रलय हो जाता है और जब दिन होता है तब संसार उत्पन्न हो जाता है और यह बार-बार होता रहता है । कबतक हमें इस चक्रमें पड़े रहना है । हमारे समाधानके लिए श्रीकृष्ण आगेका श्लोक कहते हैं ।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्यो व्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।

यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥ (८,२०)

इस अव्यक्तसे परे एक दूसरा भाव है, वह परम भाव है और सनातन है । नाशवन्त प्राणियों में भी यह परमभाव शाश्वत है । नाश सभीका होता है किन्तु उसके पीछे जो मुख्य भाव है वह शाश्वत है । हमें नाककी अनीसे आगे देखना चाहिए । अव्यक्तोऽक्षर

इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।

यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ ( ८,२१)

इसे अव्यक्त और अक्षर कहा गया है । कहा है कि यह परमगति ही है । इसे प्राप्त करनेके बाद कोई वापस नहीं आता । यही मेरा परमधाम है ।

धैर्य धारण करके साक्षीभावसे कर्म करते हुए तू मुझे पा जाता है। श्रद्धालु बन और कर्त्तव्यमें दृढ़ रहकर कल्याण कर । परब्रह्मका नाश नहीं होता । अन्य वस्तुएँ नाशवान् हैं। सारी बातका सार यही है ।

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मंगलवार, १० अगस्त, १९२६
 

ईश्वरका अक्षर तथापि व्यक्त स्वरूप उसके अवतारोंमें है । संसारके प्राणि- मात्रमें यह अक्षर स्वरूप देखा जा सकता है। हम पशुओं-जैसे बन जायें, इसका नाम अभेदवाद नहीं है। अभेदवाद तो इस बातकी प्रतीति है कि दुष्टसे-दुष्ट व्यक्तिमें भी ईश्वरांश है और प्रसंगानुकूल वह जागृत हो सकता है । रामचन्द्रजीका बालस्वरूप कविकी कल्पना है, किन्तु हम उसे सत्य मान सकते हैं क्योंकि बालस्वरूपमें भी चेतन तो होता ही है । ज्ञानी होनेपर भी कोई छोटा बच्चा अपने शिशु स्वरूपमें बच्चोंकी तरह ही कौतुक करता रह सकता है और तब हम कह सकते हैं कि यह तो " लटका करे ब्रह्म पासे ।" ब्रह्म ब्रह्मके सामने खेल रहा है। ऐसा बच्चा ब्रह्मका स्वरूप उसी अर्थ में होगा जिस तरह पार्वती तपस्याकी मूर्ति और कृष्ण योगकी मूर्ति -- ब्रह्मकी मूर्ति थे ।