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'गीता-शिक्षण'

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बुधवार, ११ अगस्त, १९२६
 

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया

यस्थान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् । (८, २२)

हे पार्थ, यह जो पुरुष है, यह परः है, उत्तम है । इसे अनन्य भक्तिसे ही प्राप्त किया जा सकता है । समस्त भूत इसके अन्तरमें निवास करते हैं । सब-कुछ इसीसे व्याप्त है।

रायचन्दभाईने गाया है, "एह परम पद प्राप्य योगना ध्यानमां, गजा वगरनुं ।

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्ति चैव योगिनः ।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ

अब मैं तुझे वह स्थिति (इसका अर्थ काल भी हो सकता है) बताता हूँ जिसे प्राप्त कर लेने के बाद अथवा जिस रास्तेका अनुसरण करनेके बाद पुनरागमन नहीं होता ।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम् ।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ (८,२४)

यह और उसके बादका श्लोक, कहा जाता है कि 'गीताजी' से ठीक मेल नहीं खाते । किन्तु हमें तो यह मानकर चलना चाहिए कि 'गीता' में इनका स्थान है।

'गीताजी' कोई आकाशसे आई हुई पुस्तक नहीं है और न यही है कि कृष्णका अर्जुनको दिया गया उपदेश शब्दश: ग्रहण करना है। व्यासने 'गीता' में वह सब कहा है जो भगवानने मोक्षार्थीसे कहा। उसे कहते हुए उन्होंने ऐसी बातें भी कहीं जिनका उन्होंने अनुभव नहीं किया था। सम्भव है उन दिनों यह एक रूढ़ मान्यता रही हो कि अमुक किसी प्रहरमें मनुष्यको काम करनेमें प्रवृत्त होना चाहिए और अमुक किसी प्रहरमें उसे देह छोड़ना चाहिए । राजाने जो समय निश्चित कर दिया हो, मिलनेवाला उसी समयमें उसके पास जा सकता है, चाहे जब नहीं। इसी प्रकार सम्भव है, यह मान्यता रही हो कि ईश्वरके पास भी उसके निश्चित किये हुए समयमें ही पहुँचना चाहिए। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि जो अमुक घड़ियोंमें नहीं मरा है, उसने ईश्वरके पास पहुँचनेका प्रयत्न ही नहीं किया है ।

अग्नि, ज्योति, दिवस, शुक्ल पक्ष और उत्तरायणके छः महीनोंमें जिसे मरण प्राप्त होता है, वह ब्रह्मको पाता है। इसका स्थूल अर्थ होता है और सूक्ष्म भी । सूक्ष्म अर्थ यह हुआ कि जिसने शुक्ल स्थिति अर्थात् जिस स्थितिमें ज्योतिकी तरह स्पष्ट ज्ञान हो गया है उस स्थितिमें संसारको छोड़ा, उसे फिर संसारमें नहीं आना पड़ता। इससे विपरीत,

१. यह परमपद योग द्वारा ध्यान में ही प्राप्त किया जा सकता है, जो मेरो शक्ति के बाहर है।

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