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'गीता-शिक्षण'

तो सब-कुछ भगवानको सौंप दिया है, अपनी बागडोर भगवानके हाथमें दे दी है। वह कहता है कि मेरा जो सर्वस्व है, मैंने उसे तेरे चरणोंमें डाल दिया है। यही हुई अनन्य भक्ति, उत्तरायण ज्योति इत्यादि । सर्वकालमें योगयुक्त रहनेकी बात कही है सो किसलिए? यह इसलिए कि तुझे ज्ञानसे संयुक्त रहना है, अनन्य भक्तिसे संयुक्त रहना है। देवतागण अमर हैं, सो मानव-जातिके ही अनुपातमें। नाश तो इनका भी है। इसलिए नाशवन्त तत्त्वोंके पास जानेके बदले मेरे पास आनेसे ही तुझे ज्ञान मिलेगा; अन्य मार्गसे नहीं । हृदयकी गाँठको ज्ञानकी रेतीसे इस तरह घिसते हुए साफ रखोगे तो मृत्युके क्षणमें सब-कुछ तुम्हारे लिए सहज हो जायेगा।

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव

दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा

योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥ (८,२८)

वेदमें, यज्ञमें, तपमें, दानमें जो पुण्यफल बताये गये हैं, उक्त तत्त्वको जानलेने- वाला व्यक्ति उनसे भी परे हो जाता है। ऐसा योगी पुरुष परम स्थानको प्राप्त करता है । हमने 'यावानर्थ उदपाने' वाले श्लोकमें यह देखा था कि जिस वस्तुको प्राप्त करनेसे सब-कुछ प्राप्त हो जाता है और फिर कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं बचता, इस प्रकाश और ज्ञानको प्राप्त कर लेनेवाला उसी स्थितिमें पहुँच जाता है।

अध्याय ९
[ १३२ ]

शुक्रवार, १३ अगस्त, १९२६
 

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥ (९,१)

इस विज्ञानके साथ मैं तुझे वह ज्ञान बतानेवाला हूँ जो गुह्यतम, असूयारहित और निर्मल है तथा जिसे जानकर तू अकल्याणसे बच जायेगा।

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥ ( ९, २)

एक व्यक्ति अधिक क्रोधमें आनेपर बीजगणितके प्रश्न हल करनेके लिए बैठ जाता था। जिस स्थितिमें रामनामका सहारा लेना चाहिए उसमें यदि कोई व्यक्ति बीजगणित लेकर बैठ जाये तो वह उसके लिए एक बोझ ही सिद्ध हो । कोई व्यक्ति मर रहा हो और हमसे मदद माँगे और हम उससे यह कहें कि मैं तो गणितका प्रश्न हल कर रहा हूँ तो वह एक प्रकारकी असभ्यता ही होगी। क्योंकि वह तो एक ऐसा क्षण है जिसमें शास्त्रोंको एक तरफ उठाकर रख दिया जाना चाहिए । गणितके प्रश्न हल करना अपने आपमें कोई कर्त्तव्य-कर्म नहीं है। कर्त्तव्य उसके पीछे