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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उद्देश्यरूपमें हो सकता है । गणितका प्रश्न हल करते हुए सम्भव है मैं यह जान सकूँ कि मैं कौन हूँ और कहाँ हूँ । किन्तु गणित-शास्त्रका अभ्यास वह अपने-आपमें कोई स्वतन्त्र कर्त्तव्य नहीं है । सेवा परम कर्त्तव्य है । उदाहरणके लिए खाना किसी भी कालमें कर्त्तव्य नहीं है । जो व्यक्ति खाते-खाते सेवा करनेके लिए दौड़ पड़ता है, वही सच्चा मनुष्य है ।

कर्त्तव्य जाननेकी यह विद्या ही राजविद्या है। यह सभी गुह्योंका राजा है, पवित्र है, उत्तम है, धर्म्य है, आचरणके योग्य है, बहुत सुगम है और प्राप्त होने के बाद इसका नाश नहीं होता। मैं तुझे वही राजविद्या बताऊँगा ।

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शनिवार, १४ अगस्त, १९२६
 

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप ।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ (९,३)

जो पुरुष इस धर्मके प्रति श्रद्धाहीन हैं, वे मुझे प्राप्त न करके मृत्युरूपी संसार- मार्गपर लौट आते हैं ।

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना

मत्स्यानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥ ( ९,४)

यह सारा जगत् मेरे द्वारा व्याप्त है • मेरी उस मूर्तिके द्वारा व्याप्त है, जो दिखाई नहीं पड़ती। जबतक हमारे ज्ञानचक्षु नहीं खुले हैं तबतक हमें श्रद्धाके द्वारा देखना पड़ता है। ये सारे भूत मुझमें हैं, में उनमें नहीं हूँ ।

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य में योगमैश्वरम् ।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥ (९,५ )

यह भी सच है कि ये मुझमें नहीं हैं। यह मेरे योगका बल है । मेरा आत्मा भूतोंको धारण करनेवाला है फिर भी वह भूतोंमें निवास नहीं करता ।

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ( ९,६)

जिस प्रकार आकाशमें स्थित वायु सब जगह विचरण करता रहता है इस प्रकार सारे भूत मुझमें हैं, ऐसा तू जान ।

वायु सर्वत्र व्याप्त है, फिर भी आकाश वायुसे अलिप्त है । हम कह सकते हैं कि आकाशमें वायु व्याप्त है । आकाशका अर्थ होता है शून्य, खाली । फिर भी हम कह सकते हैं कि आकाशमें वायु है । फिर भी आकाश अलिप्त है। आकाशमें व्याप्त वायु आकाशमें नहीं है । इसी तरह सब भूतोंमें स्थित ईश्वर उनमें स्थित नहीं है । एक तरहसे वह शून्य है । क्योंकि हम अपनी इन्द्रियोंके द्वारा वहाँ दूसरी वस्तुओंको देख सकते हैं, इसे नहीं देख सकते ।