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'गीता-शिक्षण'

श्रद्धालु और अश्रद्धालु प्रामाणिक तो दोनों ही हैं। जिसके हृदयमें श्रद्धा है, उसके लिए ईश्वर है और जिसके हृदयमें श्रद्धा नहीं है, उसके लिए ईश्वर नहीं है ।

कोई विद्वान् व्यक्ति इन दोनों श्लोकोंमें कही गई बातको प्रतिपादित कर सकता है।

गंगामें मैल है और नहीं भी है। इसी तरह दुष्टसे-दुष्ट व्यक्ति भी ईश्वरमें है । क्रूरसे-क्रूर और चाण्डाल भी ईश्वरमें है और नहीं भी है । ईश्वर तो अच्छे और बुरेसे परे है । व्यासजीने इन विरोधी वचनोंको एक-साथ रख दिया है क्योंकि हमारी बुद्धि ईश्वरका वर्णन करते हुए पुलकित हो जाती है। यदि हम इतना भी समझ जायें कि भगवान सर्वत्र ओतप्रोत है तो वह पर्याप्त है ।

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रविवार, १५ अगस्त, १९२६
 

आदमीको गिरानेवाली चीजें तो बहुत हैं। करना पड़ता । किन्तु ऊपर चढ़नेके लिए तो प्रयत्न करना ही पड़ता है। हम जिस धर्मपुस्तकको अपने लिए कल्याणकारी मानते हैं, उसका आदर करते हैं और उसे अच्छी जगहपर रखते हैं। किन्तु यदि इस तरह बाह्य आदर देकर ही हम अपने कर्त्तव्यकी इतिश्री मान लें तो वही साधन हमारे लिए बन्धनरूप हो जायेगा। इस लिए आदर देनेमें भी विवेक तो होना ही चाहिए। विवेकपूर्ण आदर ही हमें आगे बढ़ा सकता है। बाह्य पूजनमें ही सब-कुछ नहीं आ जाता। हमें इससे आगे जाना चाहिए। ग्रन्थमें जो कुछ लिखा है, उसके अनुसार आचरण करना चाहिए । ईश्वर सर्वशक्ति- मान है। हम उसकी कृति हैं। किन्तु जब हम, जो उसके सामने चींटियोंके समान तुच्छ हैं, उसे खा जानेका प्रयत्न करते हैं तब वह अपनी अनन्त शक्तिका उपयोग करता है। ईश्वर हमारे इतने समीप है मानो वह बिलकुल आँखोंके सामने खड़ा है, किन्तु वह इतना दूर भी है कि हमारे हाथ नहीं आता। जैसे आकाश और वायु एक-दूसरे ओतप्रोत हैं, ऐसा ही सम्बन्ध ईश्वर और जगतका है। जो श्रद्धालु है वह ईश्वरमें समाया हुआ है। जो अश्रद्धालु है वह उससे अलग है। ईश्वर किसीके ऊपर जबरदस्ती जाकर नहीं लद जाता। किन्तु जो उससे भेंट करना चाहता है, उसके लिए वह अपने द्वार बन्द भी नहीं करता । ऐसा है ईश्वरका स्वभाव ।

{{c|सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् ।}

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥ (८, ७)

हे कौन्तेय, एक कल्पका क्षय हो जानेके बाद समस्त जीव प्रकृतिमें लय हो जाते हैं। दूसरे कल्पका प्रारम्भ होनेपर में फिर सबको उत्पन्न करता हूँ। धर्म- पुस्तकों में उत्पत्ति और लयका ऐसा विवरण मिलता है। अलग-अलग जीव तो जन्म और मरण प्राप्त करते ही हैं, किन्तु समस्त जगत्की भी उत्पत्ति और उसका

१. इन दो दिनोंका विवरण महादेवभाई नहीं लिख सके, इसलिए इसे पूँजाभाईके विवरणसे लिया है।