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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लय होता है। इसलिए यदि जीव अपना लक्षण समझना चाहता हो तो उसे जगत्से अतीत हो जाना चाहिए। इस दीपकको एक-न-एक दिन बुझना ही है। हम निश्चित रूपसे यह जानते हैं; फिर भी उसका उपयोग तो करना ही होता है। इसलिए इसे साफ रखनेकी चिन्ता आवश्यक है। आश्रममें घर बने हुए हैं। ये घर मानो आश्रमकी देह हैं। इनका नाश अवश्यंभावी है। किन्तु आश्रमकी आत्माका अर्थात् जो आश्रमके आदर्श हैं, उनका कभी नाश नहीं होता । अविनाशी तत्त्वको पानेके लिए हमें ईंट और माटीके मकान बाँधने पड़ते हैं। इस तरह विवेकपूर्वक प्रयत्न करना ही होता है। जबतक जगत्‌में रहना है तबतक नाशवान् वस्तुओंके प्रति भी प्रयत्नशील रहना ही पड़ता है। किन्तु यह इसी दृष्टिसे कि हमें अविनाशी तत्त्वको प्राप्त करना है।

प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।

भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ (९,८)

अपनी प्रकृतिका आश्रय लेकर मैं समय-समयपर जीवोंके समस्त समुदायको बार- बार उत्पन्न करता हूँ और उन्हें भी अपनी प्रकृतिके वशमें होकर जबरदस्ती उत्पन्न होना पड़ता है।

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मंगलवार, १७ अगस्त, १९२६
 

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ।

उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥ (९, ९)

हे अर्जुन, उदासीनकी तरह स्थिर और अनासक्त मुझको वे कर्म नहीं बाँधते । ईश्वर अपनी प्रकृतिके अनुसार कर्म करता हुआ भी कोई कर्म नहीं करता, क्योंकि वह इस प्रकृतिसे भी परे है।

राजा पाप करता है तो उसके छींटे प्रजाके ऊपर भी जा पड़ते हैं, किन्तु ईश्वर- से बिना विचारे कोई काम होता ही नहीं है। क्योंकि वह सर्वज्ञ है। पापका अर्थ ही है बिना विचारे हुए किया हुआ काम । जिसमें विचार है उसमें पाप कैसा । इसी तरह जो सहज भावसे पाप करता है, उसके लिए पुण्य क्या है। हमारी आँख जिस तरह स्वभावसे ही उठती-गिरती है, इसी तरह जो परोपकारको किसी फलकी दृष्टिसे नहीं, स्वभावसे ही करता रहता है, उसे अपने पुण्य-कर्मोका फल भी नहीं भोगना पड़ता। मनुष्यका तो स्वभाव ही परोपकार करनेका है। क्योंकि उसमें और दूसरे जीवोंमें कोई अन्तर नहीं है। सबके एक ही होनेके कारण 'स्व' तथा 'पर' का उच्छेद हो जाता है। इस तरह मनुष्यमें अहंकार नहीं बचता। मनुष्यकी आत्माका गुण तो व्यापक है। आत्माको जाननेवाला मनुष्य अपनेको दूसरोंसे अलग नहीं देखता, बल्कि सबमें अपनेको देखता है और इस तरह परोपकार उसका स्वभाव बन जाता है। जब ऐसा दिखाई पड़ रहा हो कि वह दूसरोंपर उपकार कर रहा है, तब भी वास्तवमें वह किसीपर मेहरबानी नहीं कर रहा है; अपने स्वभावका अनुसरण ही