कर रहा है। हम जो मायामें जकड़े हुए हैं, बाह्य दृष्टिसे देखकर ऐसा मानते हैं कि वह व्यक्ति पुण्य-कर्म कर रहा है, परन्तु सचमुच ऐसी कोई बात नहीं है। वह तो जीव-मात्रके प्रति अपने स्वभावके ही अनुसार आचरण कर रहा है।
[ १३६ ]
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते । (९,१०)
मेरी अध्यक्षतामें प्रकृति (अर्थात् मेरा स्वभाव) चर और अचरको उत्पन्न करती है और इस कारण जगत्का चक्र अर्थात् प्रलय और उत्पत्तिका क्रम चलता ही रहता है।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥ (९,११)
मूढगण अर्थात् मनुष्य-शरीरधारी मुझको नहीं पहचानते। मेरी अवगणना करते हैं। (जो ऐसा मानते हैं कि राम और ईश्वरमें भेद है वे अज्ञ हैं, अकोविद हैं। ऐसा क्या तुलसीदासने नहीं कहा है। हम अपने मोहको ईश्वरपर भी आरोपित कर देते हैं।) वे मेरे परमभाव अर्थात् भूतोंके महेश्वरत्वको नहीं जानते। वे मुझे भ्रमवश मनुष्य मानकर मेरे स्वरूपको नहीं जान पाते ।
[ १३७ ]
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।
राक्षसीमासुरी चैव प्रकृति मोहिनीं श्रिताः ॥ (९,१२)
व्यर्थकी आशा रखनेवाले, व्यर्थके कर्म करनेवाले, वृथा-ज्ञानशील और मूढ़ व्यक्ति मोहमें डालनेवाली राक्षसी और आसुरी प्रकृतिमें पड़े हुए हैं।
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ।। ( ९, १३)
जो महात्मा हैं, विभीषण आदिकी तरह दैवी प्रकृतिका आश्रय लिये हुए हैं, वे अनन्य चित्तसे अर्थात् एकाग्र ध्यानसे भूतोंके कर्ता और अविनाशीके रूपमें मुझे जानकर ज्ञानपूर्वक भजते हैं।
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च वृढव्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ (९,१४)
मेरा सतत स्तवन करनेवाले, प्रयत्न करनेवाले, दृढव्रती, मुझे प्रणाम करते हुए
और सर्वदा मेरे ध्यानमें युक्त रहकर भक्तिपूर्वक मुझे भजते हैं।
१. “ अझ अकोविद अंघ अभागी..."
रामचरितमानस, बालकाण्ड ।