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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।

एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥ (९,१५ )

अन्य लोग मुझे ज्ञानयज्ञके द्वारा भजते हुए मेरी उपासना करते हैं । इनमें से कितने ही मुझे एकत्व भावसे अर्थात् यह मानकर कि सब-कुछ वासुदेव ही है और कितने ही अनेकत्व भावसे अर्थात् मेरे अलग-अलग स्वरूप हैं ऐसा समझकर तथा कुछ लोग मुझे सर्वरूप समझकर भजते हैं।

'विश्वतोमुखम्' को 'माम्' के साथ लेना चाहिए। उसके बाद अर्थ यह बनेगा कि मुझे सब स्थानोंपर निवास करनेवाला मानकर अर्थात् एकत्व भावसे अथवा बहुतोंमें रहनेवाला मानकर मेरी उपासना करते हैं; दूसरा अर्थ होगा 'एकत्व' अर्थात् अनन्यभावसे और 'पृथक्त्व' अर्थात् मुझे स्वामी और अपनेको सेवक मानकर भजते हैं। एकत्व और पृथक्त्वका अर्थ निर्गुण उपासना और सगुण उपासना भी हो सकता है। यदि हम एकत्व और पृथक्त्वसे विच्छिन्न मानकर 'विश्वतोमुखम् ' का कोई तीसरा भाव मानें तो अर्थ नहीं बैठता ।

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शुक्रवार, २० अगस्त, १९२६
 

अहं ऋतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।

मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥ (९,१६)


'वेदों' में वर्णित क्रियाएँ मैं हूँ, स्मृतिमें वर्णित यज्ञ में हूँ, पुरखोंको अर्पित किया गया अन्न मैं हूँ । औषध में हूँ, मन्त्र मैं हूँ, यज्ञमें होम किया जानेवाला घी, अग्नि और होम मैं ही हूँ ।

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।

वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ॥ (९,१७)

मैं इस जगत्का पिता, माता और उनको धारण करनेवाले पिताका भी पिता हूँ। जानने योग्य, परम, पवित्र, ब्रह्म, ओंकार, 'ऋगवेद', 'सामवेद’, ‘यजुर्वेद' भी मैं ही हूँ ।

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।

प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥ (९,१८)

मैं गति हूँ, अर्थात् मोक्ष हूँ। मनुष्य जिस वस्तुको पाना चाहता है वह वस्तु मैं ही हूँ। मैं भरण-पोषण करनेवाला प्रभु हूँ और साक्षी भी हूँ । निवास और आश्रय भी मैं हूँ । सुहृद अर्थात् बदलेकी आशा किये बिना मदद करनेवाला परोपकारी मित्र मैं हूँ । उत्पत्ति, नाश और स्थिति में हूँ। समस्त वस्तुओंका निधान और अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ ।