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'गीता-शिक्षण'

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन


मैं तपता हूँ। किन्तु सब जीवोंको सुख और ज्ञान देनेवाले सूर्यकी तरह तपता हूँ। वर्षाको आकर्षित करके वृष्टि करनेवाला भी में हूँ। मृत्यु और अमृत, सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।

इसका अर्थ यह हुआ कि हम जगत्‌में जितनी वस्तुओं और स्थितियोंका विचार कर सकते हैं वह सभी कुछ ईश्वर है। इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर केवल अच्छा ही अच्छा नहीं है, खराब भी ईश्वर है। ईश्वरकी आज्ञाके बिना कुछ भी नहीं हो सकता । प्रकाशका स्वामी ईश्वर है और अन्धकारका स्वामी शैतान है, यह भी ठीक नहीं है । हम शरीरधारी लोग द्वन्द्व मानते हैं । इसलिए जबतक शरीर है, तबतक भले ही ऐसा मानें । हमें तुलसीदासजीके वचनोंको आत्मसात् कर लेना चाहिए। उन्होंने कहा है कि जबतक हम मायामें ग्रस्त हैं तबतक यह सारी माया हमें सत्य लगेगी। हमें शुक्ति चाँदी जैसी लगेगी और सूर्यकी किरण मृगतृष्णा जैसी लगेगी। जबतक कोई ज्ञानी हमें यह ज्ञान न दे जाये कि रस्सीमें सर्प, सीपमें रजत् और सूर्य-किरणों में मृगतृष्णाका भान हमारी कल्पनामें ही था, तबतक हमें ऐसा ही भान होता रहेगा । ईश्वर शुभ भी है और अशुभ भी है, यदि हम ऐसा मानकर यह कहें कि उस अवस्थामें अशुभ बननेमें क्या बुराई है। पर यदि हम ऐसा मान लें तो यह गलत होगा । उक्त कथनका यह भाव नहीं है कि हमें कनखजूरा या बिच्छू जैसा हो जाना चाहिए, बल्कि भाव यह है कि हमें इन सबकी ओर भी सद्भाव रखना चाहिए, स्वयं उनकी तरह विषैले नहीं बनना है। यहाँ एक ऐसी जबरदस्त बात कही गई है जो हमारी बुद्धिमें नहीं आ सकती । जगत्में यह अशक्य है । यह हमारी कल्पनामें ही बनी रहेगी। सत्य-असत्य, पुण्य-पाप, अमृत और मृत्यु ये सब परस्पर विरोधी वस्तुएँ हैं । विरोधी गुण मनुष्यमें नहीं रह सकते, वे तो सकते हैं। जो तीसरी अवस्था है वह इन दोके मेलका नाम नहीं है। हाइड्रोजन और आक्सीजनके मेलको हम पानी कहते हैं। किन्तु यह पानी इन दोनों वस्तुओंके गुणों से अलग है । उसमें इन दो वस्तुएँके गुण नहीं बच रहते । वह एक तीसरा ही गुण है। इसी तरह यह नहीं कहा जा सकता कि ईश्वरमें पाप और पुण्य दोनों ही गुण हैं। वह एक तीसरा ही भाव है । यदि हम इन विरोधी वस्तुओंको अपनेमें समा- हित करें तो विस्फोट हो जाये, किन्तु शंकर तो शुभ-अशुभ दोनोंको निगल जाते हैं । इनका संयोग ईश्वरमें जो रूप धारण करता है वह एक अद्भुत वस्तु है । इस संयोगकी खूबी ईश्वर ही जानते हैं। हमें खराबसे दूर ही रहना है। यदि हम शुभ- अशुभ दोनों बननेकी बात करेंगे तो हम इस अनुकरणमें नाशको प्राप्त हो जायेंगे ।