त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गत प्रार्थयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ।। (९,२० )
तीनों 'वेदों' में जिन्हें कर्म कहा गया है उन कर्मोंको करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले,
(उत्तर ध्रुवमें सोमरस भोजन ही था और वहाँ सोमरसके माँगे जानेपर न दिया
जाता तो वह गुनाह ही होता; सोमरस तो मरेको प्राणदान करनेवाली वस्तु थी।) '
अपने पापको धो डालनेवाले मुझे यज्ञोंके द्वारा भजते हैं तथा स्वर्गकी दिशामें जानेकी
प्रार्थना करते हैं । वे इन्द्रके दिव्यलोकमें जाकर दिव्य देवभोगोंको भोगते हैं ।
[ १३९ ]
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं
त्रयोधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ (९, २१)
वे विशाल स्वर्गलोकको भोगकर, पुण्य क्षीण हो जानेपर मृत्युलोकमें प्रवेश करते हैं। इस तरह 'वेद' में निर्दिष्ट कर्मकाण्डको भोगेच्छाकी दृष्टिसे सकाम और इच्छापूर्वक करनेवाला व्यक्ति जन्म-मरणके चक्रमें पड़ता है ।
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानाम् योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ( ९, २२)
किन्तु जो अनन्य भक्तिसे मेरा चिन्तन करते हैं, मेरी पर्याप्त आराधना करते हैं और जो हमेशा मुझे ही भजते हैं उनका योगक्षेम में चलाता हूँ । योग अर्थात् ईश्वर-प्राप्ति और क्षेम अर्थात् उसकी प्राप्तिके लिए आवश्यक साधनोंकी रक्षा ।
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धायान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥ (९, २३ )
किन्तु जो अन्य देवताओंके भक्त हैं और उनके प्रति श्रद्धासे युक्त हैं, हे कौन्तेय, वे भी मुझे ही पूजते हैं यद्यपि वे मेरा यह पूजन सच्ची विधि जाने बिना करते हैं ।
सच्ची विधि यह है कि ईश्वर और अपने बीच किसी दूसरेको न आने देना । किन्तु जो बीचमें स्थित द्वारपालोंके मार्फत मुझे पानेका प्रयत्न करते हैं वे भी पूजते तो मुझको ही हैं; क्योंकि इसके द्वारा उनका उद्देश्य मेरे ही पास आनेका होता है।
१. साधन-सूत्रमें ऐसा ही है। अर्थ स्पष्ट नहीं है।