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'गीता-शिक्षण'

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।

न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥ (९, २४)


मैं ही सर्वयज्ञोंका भोक्ता और स्वामी हूँ अर्थात् जो अहंकारवृत्तिसे हीन होकर सर्वकर्म करता है वह कह सकता है कि मैं कुछ नहीं करता, भगवान करता है । किन्तु जो व्यक्ति मुझे तत्त्वरूपसे नहीं जानते, वे मुझे न जाननेके कारण उक्त पदसे नीचे गिर जाते हैं ।

जबतक अहंकार बचा हुआ है, तबतक दोष करनेवाला अपनेको पतितसे- पतित कहकर अपना परिचय देता है । तुलसीदास एक तरफ ऐसा कहते हैं कि मेरे जैसा कामी, लम्पट, नीच, व्यभिचारी दूसरा कोई नहीं है, और दूसरी ओर अपने सारे पापोंकी जिम्मेदारी ईश्वरपर डालते हैं; क्योंकि जब 'मैं' ही नहीं हूँ तो पाप करनेवाला कहाँ रहा। गंगा नदी अनेक पापोंको धोनेवाली है किन्तु वह स्वयं कलंकित नहीं होती, इसी प्रकार राममें जो शाश्वत् तत्त्व है वह निष्पाप है। स्थूल राम अर्थात् उनका विनाशवन्त अंश तो पापमय है। यदि हम इस कथनका अनर्थ करके पाप करनेपर तुल जायें और कहें कि यह पाप हमें लग ही नहीं सकता, तो यह उस कहानीके मेंढक-सरीखी बात हुई जिसने बैलके बराबर होनेके प्रयत्नमें अपना पेट फाड़ डाला था। भक्त कहता है कि मैं पापी हूँ किन्तु मैं तुझे समर्पित हूँ; इसलिए [ यदि मैं पाप करता हूँ तो ] तू पापी बनता है। हमारी बुद्धि इसके आगे नहीं जाती। आदम- को खुदा मत कहो, आदम खुदा नहीं; लेकिन खुदाके नूरसे आदम जुदा नहीं ।

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मंगलवार, २४ अगस्त, १९२६
 

यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ (९, २५) देवोंको भजनेवाले देवताओंको, पितरोंकी पूजा करनेवाले पितरोंको, भूतोंकी पूजा करनेवाले भूतोंको और मेरी पूजा करनेवाले मुझको प्राप्त करते हैं।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ ( ९,२६)

मनुष्य मुझे पत्र, पुष्प, फल, जल जो-कुछ भक्तिपूर्वक देता है, दृढ़चित्त व्यक्तिके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उस सबको मैं ग्रहण करता हूँ ।

भगवानको दुर्योधनका मेवा नहीं भाया; क्योंकि उसने भक्तिपूर्वक नहीं दिया था, बल्कि उसकी इच्छा उसके द्वारा अपना स्वार्थ साधनेकी थी। वह तो अपनी शर्तोपर भगवानसे मदद लेना चाहता है। वह प्रयतात्मा नहीं था। किन्तु विदुर विशुद्ध थे। उनकी साधारण शाक भी भगवान्ने भावपूर्वक ग्रहण की। क्योंकि उनकी भक्ति अनन्य थी और उनका मन सरल और स्वच्छ था । पाखण्डियोंके बड़ेसे-बड़े खजानेकी भी उन्हें परवाह नहीं थी।