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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥ ( ९, २७ )

इसलिए तू जो-कुछ करता है, खाता है, अर्पण करता है, दान करता है, तप करता है, वह सब तू मुझे समर्पित कर ।

मोक्ष्यसे शुभाशुभफलैरेवं कर्मबन्धनैः ।

संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥ (९,२८)

ऐसा आचरण करनेसे तू शुभाशुभ फलवाले कर्मबन्धनोंसे मुक्त रहेगा; क्योंकि सारे भोग तो मुझे समर्पित किये जा रहे हैं। जो व्यक्ति संन्यास-योगके द्वारा स्वच्छ हो गया है, जिसने अपने समस्त कर्म भगवानको अर्पित कर दिये हैं, जो जबतक जीता रहा तबतक सोता रहा अर्थात् कर्मरत रहा है, किन्तु भगवानको समर्पित करके,--- वह मनुष्य मुक्त होकर मुझे प्राप्त करता है।

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। ( ९, २९ )

मैं सभी भूतोंके प्रति समदर्शी हूँ, न मेरे लिए कोई द्वेष्य है, न प्रिय । जो व्यक्ति मुझे भक्तिपूर्वक भजता है, मैं उसमें हूँ और वह मुझमें है। जब हम भगवानके पास पहुँचते हैं तो हमें जितना चाहिए उतना मिल जाता है। जब हम गंगाजीमें जाते हैं तो हमें गंगा मिल जाती है और हम अंजुली-भर ही लेते हैं तब हमें अंजुली-भर मिलता है। भगवान तो चींटीको कण और हाथीको मन देता है।

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बुधवार, २५ अगस्त, १९२६
 

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ (९, ३० )

जो व्यक्ति मुझे अनन्यभावसे भजता है, यदि वह कोई बड़ा दुराचारी भी हो, तो भी उसे साधु पुरुष मानना चाहिए। वह एक भली-भाँति व्यवस्थित व्यक्ति होता है। जिसने अजामिलकी तरह अपनी दुष्टता निकाल फेंकनेका निश्चय कर लिया हो, जो दृढ़ासनसे बैठ गया हो, भले ही उसके विचार उसे न छोड़ें किन्तु वह ‘ॐ' का उच्चारण करता हुआ दृढ़निश्चयी और स्थिर आसनका साधु है । इसके विपरीत जिस मनुष्यने निश्चय नहीं किया है, जो अनियमित है और अव्यवस्थित ढंगसे काम करता है वह अच्छा होते हुए भी साधु नहीं कहा जा सकता ।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति ।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ।। (९, ३१)

अनन्य भावसे मुझे भजनेवाला व्यक्ति सत्वर धर्मात्मा हो जाता है और अखण्ड शान्तिको प्राप्त करता है। इसलिए दुष्टसे-दुष्ट व्यक्तिको भी दुष्ट नहीं मानना चाहिए ।