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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस जगतमें न तो पैसा कमाना है, न बड़ा पद प्राप्त करना है, अथवा न चक्रवर्ती राज्य भोगना ही है। केवल हृदयमें यह बात अंकित कर लेनी है कि भगवानको ही प्राप्त करना है। जिसे आँख, कान, नाक अनुभव कर सकते हैं उसे प्राप्त करनेमें क्या पुरुषार्थ है। हमें इसमें नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि ये सारी वस्तुएँ क्षणिक हैं। चक्रवर्ती भी चले गये। यदि हम देखें तो ईश्वर हमारे हृदयमें बैठा हुआ है और जिस मंगल मन्दिर- में वह बैठा है उसे खोलनेकी प्रार्थना उसीसे है। इसका साधन बता दिया गया है मन्मना भव, मद्याजी'। मैं कर्त्ता, भर्त्ता, सुहृद्, स्थान, प्रभव, प्रलय -- सब-कुछ हूँ । दूसरा कुछ है ही नहीं। मैं एक ही हूँ। तू तो कुछ भी नहीं है। बीचमें जो देवता इत्यादि हैं वे भी तेरी तरह नाशवन्त हैं। अविनाशी केवल एक मैं हूँ । यदि तुझे अविनाशी बनना है तो मुझे ही प्राप्त कर । और यह हो सकता है, अपना मन सम- पित करने के बाद ही । तू नहाना, धोना इत्यादि क्रियाएँ भले ही करता हो; किन्तु यदि उन्हें करता हुआ भी तू भगवानका भजन करता रहे और अपना खाना-पीना भगवानको अर्पित कर रखे, देहका भाड़ा चुकाकर उसके द्वारा भी भगवानका भजन ही करे, तो तू भगवानको पहुँचा हुआ ही है ।

अध्याय १०

[ १४२ ]

गुरुवार, २६ अगस्त, १९२६

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।

यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥ (१०,१)

मैं जो वचन तेरी हितकामनासे कहना चाहता हूँ, तू उन्हें भी सुन ।

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।

अहमादिहि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥ ( १०, २)

देवतागण और महर्षिगण मेरा प्रभाव नहीं जानते क्योंकि मैं सब तरहसे इन दोनोंका आदि हूँ, उनका कारणभूत सृष्टिकर्ता हूँ ।

यो मामजमनादि च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।

असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ (१०,३)

जो मुझे अज, अनादि और लोकोंके महेश्वरके रूपमें जानता है, वह मोहमें नहीं पड़ता। मोहमें पड़े हुए व्यक्तिको रात्रि दिनके समान और दिन रात्रिके समान है। इन सब नाशवन्त प्राणियोंमें जो ज्ञानी है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है, क्योंकि ऐसे मनुष्यके हृदयमें फिर राग-द्वेष नहीं रहता, अभिमान नहीं रहता । वह द्वन्द्वसे निर्लेप हो जाता है, नम्र हो जाता है और मानता है कि हम ईश्वरका दिया खाते हैं ।