बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः । (१०,४-५)
इन दो श्लोकोंमें बताये गये सारे भाव अर्थात् बुद्धि, ज्ञान, मोहरहित स्थिति, क्षमा, सत्य, इन्द्रिय-निग्रह, शम (शान्ति), सुख-दुःख, भाव-अभाव, भय-अभय, अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान, यश-अपयश -- ये सारे भाव सभी भूतोंमें पड़े हुए हैं और ये सभी पृथक्-पृथक् भाव मुझसे ही निष्पन्न हैं। यदि भूतोंका कर्त्ता वही है तो भूतोंमें जो गुण और दोष दिखाई पड़ते हैं, उनका कर्ता भी वही है ।
[ १४३ ]
महर्षयः सप्त पूर्वी चत्वारोमनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ (१०, ६)
सात ऋषिगण', उनसे पूर्व हुए चार मनु मेरे संकल्पसे उत्पन्न हुए हैं। यह सब मेरी मानसिक सृष्टि है और उसीमें से ये सारे लोक उत्पन्न हुए हैं।
एतां विभूति योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः ।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥ (१०, ७)
जो यथार्थ रीतिसे मेरी विभूति और शक्तिको जानता है वह मेरे साथ युक्त हो जाता है, इसमें कोई भी संशय नहीं है ।
सभी कुछ ईश्वर उत्पन्न करता है। जो व्यक्ति केवल बुद्धिसे ही नहीं किन्तु हृदयसे भी यह मानता है कि इसकी इच्छा, आज्ञा अथवा नियमके अधीन हुए बिना प्राणि-मात्र एक क्षणके लिए भी नहीं टिक सकते, वह ईश्वरके साथ एकनिष्ठ होकर युक्त हो जाता है। किन्तु जो व्यक्ति ईश्वरको भूलकर अहंकारवश हो ऐसा मानता है कि में स्वयं ऊँचा चढ़ रहा हूँ, वह बुरी तरह असफल हो जाता है। किन्तु जो ईश्वरपर हृदयसे आस्था रखकर अपने हृदयमें स्थित अन्तर्यामीके अधीन हो जाता जाता है वह अविचल समताको प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सवं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥ (१०,८)
जो ज्ञानीलोग मुझे भावपूर्वक भजते हैं वे जानते हैं कि मैं ही सबकी उत्पत्तिका कारण हूँ और सब-कुछ मुझसे ही प्रवर्तित होता है ।
१. इस दिनका विवरण महादेवभाईका लिखा हुआ नहीं है।
२. भृगु, मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलइ, ऋतु और वशिष्ठ – ये सात महर्षि हैं।
३. मनु १४ हैं, पर चार मनु सावर्ण नामसे प्रसिद्ध है -सावणि, धर्मसावणिं, दक्षसावर्णि और सावर्ण।