पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। (१०, ९)

अपने चित्तको मुझमें लीन करनेवाले और अपने प्राणोंको मुझे समर्पित करने- वाले एक-दूसरेकी सेवा करते हुए सदा मेरा कीर्तन करते हुए सन्तोष और आनन्दमें रहते हैं ।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन सामुपयान्ति ते ॥ (१०,१०)

जो मुझमें निरन्तर लीन रहते हैं और मुझे प्रीतिपूर्वक भजते हैं मैं उन्हें ज्ञान देता हूँ और वे उसके द्वारा मुझे पा जाते हैं। इस तरह भक्तका ज्ञान हस्तामलक- वत् होता है। उसे ग्रन्थ नहीं पढ़ने पड़ते । किन्तु जो व्यक्ति ऐसा मानता है कि पहले ज्ञान प्राप्त करके फिर भक्ति करूंगा, वह असफल हो जाता है। ज्ञान इस तरह नहीं मिलता। ऐसे ज्ञानसे अहंकार उत्पन्न होता है। किन्तु जो प्रथम प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करता है और जो मुझमें ही परायण रहता है उसे सहज ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

तेषामेवा नुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।

नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥ (१०,११)

उनके प्रति मुझे करुणा उत्पन्न होती है। इसलिए अज्ञानजनित अन्धकारको उसके हृदयका स्वामी होनेके कारण मैं नष्ट कर देता हूँ । प्रकाशित ज्ञान-दीपसे उसका नाश कर देता हूँ ।

[१४४]

शनिवार, २८ अगस्त, १९२६
 

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिनरिदस्तथा ।

असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ।। (१०,१२-१३)

तुम परम ब्रह्म हो, परमधाम हो, परम पवित्र हो, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास इन सभी ऋषियोंने तुम्हें शाश्वत् पुरुष, दिव्यादिदेव, अज और विभु कहा । आप स्वयं भी ऐसा ही कहते हैं ।

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।

न हि ते भगवन्यक्ति विदुर्देवा न दानवाः ।। (१०,१४)

आप जो-कुछ कहते हैं उस सभीको में ऋत् अर्थात् सत्य मानता हूँ। तुम्हारे वास्तविक स्वरूपको न देवता जानते हैं, न दानव ।