स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥ (१०, १५)
हे भूतभावन, भूतेश, देवदेव, हे जगत्पति, हे पुरुषोत्तम, अपने स्वरूपको आप ही जानते हैं ।
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिविभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ।। (१०,१६)
अपनी इन दैवी विभूतियोंको जिनके माध्यमसे आप इन लोकोंमें व्याप्त होकर अवस्थित हैं, सम्पूर्ण रूपसे बता सकनेमें आप ही समर्थ हैं।
कथं विद्यामहं योगिस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ।। (१०,१७)
हे योगी, मैं किस प्रकार सदा आपका ध्यान धरते हुए आपको जान सकता हूँ ? मुझे किन-किन रीतियोंसे आपका चिन्तन करना चाहिए।
विस्तरेणात्मनो योगं विभूति च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिहि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ (१०, १८)
आप अपने योग और विभूतियोंको मुझसे विस्तारपूर्वक कहें। बार-बार कहें, क्योंकि इन अमृत वचनोंको सुनते हुए तृप्ति नहीं होती।
नित्य नक्काशीका काम करनेवाला थकता नहीं है। वह घूम-फिरकर फिर उसीमें जुट जाता है। इसी तरह कृष्णका नाम रटनेवाला अर्जुन, कृष्णके द्वारा विस्तारपूर्वक अपनी विभूतियोंको समझाये जानेसे कैसे थक सकता है। कृष्ण भले ही थक जायें ।
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हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ।। (१०, १९)
हे कुरुश्रेष्ठ, अब मैं तुझे अपनी मुख्य-मुख्य दिव्य विभूतियाँ बताऊँगा, क्योंकि मेरे विस्तारका तो अन्त ही नहीं है।
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ (१०, २०)
हे अर्जुन, मैं सर्वभूतोंके हृदयमें स्थित आत्मा हूँ। मैं भूतोंका आदि, मध्य और अन्त भी हूँ ।
आदित्यानामहं विष्णुज्र्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ।। (१०, २१)
में आदित्योंमें विष्णु हूँ, ज्योतियोंमें जगमगाता हुआ सूर्य हूँ, मरुतोंमें मरीचि हूँ, और नक्षत्रोंमें चन्द्र हूँ ।