पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी । (१०, ३१)
पावन करनेवालों में में पवन हूँ। शस्त्रधारियोंमें परशुराम हूँ। जलचरोंमें मगरमच्छ हूँ और नदियोंमें में गंगा हूँ ।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ (१०, ३२)
हे अर्जुन, सृष्टिका आरम्भ, अन्त और मध्य में हूँ । विद्याओं में अध्यात्मविद्या हूँ और [ तत्त्वनिर्णयके हेतु] विवादमें में वाद' हूँ ।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ (१०, ३३)
अक्षरोंमें में अकार और समासोंमें द्वन्द्व मैं हूँ । अक्षय काल मैं हूँ और सर्व- व्यापी तथा सबको धारणकरनेवाला भी मैं हूँ ।
मृत् : सर्वहरचाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा । (१०, ३४)
सबका हरणकर्ता मृत्यु मैं हूँ । भविष्यमें उत्पन्न होनेवालोंकी उत्पत्तिका कारण मैं हूँ । नारी जातिके नामोंमें कीर्ति, लक्ष्मी, वाणी, स्मृति, मेधा (बुद्धि), धृति (धीरज) और क्षमा मैं हूँ ।
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥ (१०, ३५)
सामोंमें बृहत्साम, छन्दोंमें गायत्री छन्द और महीनोंमें मार्गशीर्ष में हूँ। (आर्यगण पहले उत्तर ध्रुवमें निवास करते थे और तब यही उनके वर्षका पहला महीना था। इसीलिए यहाँ इसका उल्लेख किया गया है।) ऋतुओं में वसन्त हूँ ।
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छल करनेवालोंमें जुआ में हूँ ।
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥ (१०, ३६)
यह केवल इतना ही सूचित करता है कि जगत्में अच्छी ही वस्तुओंमें नहीं, बल्कि बुरी वस्तुओंमें भी मैं हूँ। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि पाखण्डियोंमें पाप मैं हूँ । राक्षसोंमें रावण में हूँ यह भी जरूर ही कहा जा सकता था, क्योंकि रावण- को जितना खेल वे खेलने देना चाहते थे, उतना ही उसे खेलने दिया। आशय केवल यही बताना है कि ईश्वर सर्वशक्मिान है, ईश्वरकी कृतिमें अच्छा-बुरा सब-कुछ है।
१. तर्कके तीन प्रकार हैं: वाद, जल्प और वितण्डा। इनमें वाद श्रेष्ठ कहा गया है।