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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इतना कह देनेके बाद हमको किंचित-सा अधिकार यह दे दिया है कि हम अच्छे-बुरेका विवेक करें और उसमें से अच्छेको चुनें। देह-रूपी पिंजरेमें बन्द हम देहियोंको इतनी ही गुंजाइश दी गई है । बन्धन काटने-भरकी गुंजाइश हमारे हाथमें है। यदि किसी कैदीको आजन्म कैदकी सजा दे दी गई हो किन्तु यदि उसके साथ कोई बहुत छोटी ऐसी शर्त भी रखी गई हो जिसके कारण वह छूट सकता है तो यह छोटी शर्त ही महत्त्वपूर्ण कही जायेगी, क्योंकि उसके माध्यमसे वह मुक्ति प्राप्त कर सकता है। हमारी स्थिति भी ऐसी ही है। क्योंकि ईश्वरने ऐसा भी कह दिया है कि हम जो चाहते हैं सो हो सकते हैं ।

प्रतापवान्का प्रभाव में हूँ, जय मैं हूँ, निश्चय मैं हूँ, सात्विक भाववाले लोगोंका सत्व मैं हूँ ।

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः ।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ (१०,३७)

वृष्णि कुलमें मैं वासुदेव हूँ, पाण्डवोंमें धनंजय हूँ, मुनियोंमें व्यास हूँ और कवियों- में उशना ' कवि हूँ ।

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥ (१०,३८)

राज्यकर्त्ताओंका दण्ड मैं हूँ, जयकी इच्छा करनेवालोंकी नीति में हूँ, गुह्य बातों में मैं मीन हूँ और ज्ञानियों में ज्ञान हूँ।

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।

म तदस्ति विना यत्स्थान्मया भूतं चराचरम् । (१०,३९)

हे अर्जुन, मैं समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका कारण हूँ । स्थावर अथवा जंगम जो कुछ भी है, उसमें मुझसे हीन कुछ भी नहीं है ।

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप ।

एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतविस्तरो मया ॥ (१०,४०)

हे परंतप, मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त भी नहीं है। मैंने विभूतियोंका यह विस्तार केवल दृष्टान्त रूपमें ही कहा है।

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूजितमेव वा ।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् ॥

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।

विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ (१०,४१-४२)

जो कुछ भी विभूतिवान्, लक्ष्मीवान् अथवा प्रभावशाली है वह सब मेरे तेजके अंशसे ही है, ऐसा समझ ।

१. कविका अर्थ यहाँ त्रिकालदर्शी है । उशना, शुक्राचार्यका एक नाम ।