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'गीता-शिक्षण'

अथवा बहुत जाननेसे क्या ? तू तो इतना ही समझ ले कि मैं अपनी विभूतिके एक अंशसे ही सारे जगत्को धारण करके बैठा हुआ हूँ।

यदि हम ईश्वरकी असंख्य विभूतियोंकी कल्पना कर सकें तो हम नम्र बन सकते हैं। नारदने जिस तरह अपनी एक विभूतिका ही अहंकार किया था, हम वैसा न करें। अहंकार भी केवल में ही कर सकता हूँ, ऐसा भगवानने कह दिया है। तात्पर्य यह है कि हमें तुच्छसे-तुच्छ बनकर ही रहना है। ईश्वरकी शक्तिका कोई पार नहीं है, ऐसा समझ लेनेके बाद, यदि कोई हमें मारनेके लिए भी आये तो हमें उसे बरदाश्त कर लेना चाहिए। यदि हम उसे मारने जायें तो ईश्वर हमारा मद उतार देगा। क्योंकि रावणसे लगाकर ऐसा कोई राक्षस नहीं हुआ, ईश्वरने जिसका संहार न किया हो ।

अध्याय ११

[ १४७ ]

बुधवार, १ सितम्बर, १९२६
 

यह महत्त्वपूर्ण अध्याय कहा जाता है। 'गीताजी' गम्भीर अर्थयुक्त काव्य है और उसमें भी ग्यारहवाँ अध्याय सर्वाधिक काव्ययुक्त है। भक्ति सीखनी हो तो इस अध्यायको सम्यक् रीतिसे गानेमें कुशलता प्राप्त करनी चाहिए। यदि यह हो जाये तो फिर हम भक्तिरसमें अवगाहन ही करते रहेंगे।

मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् ।

यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम (११, १)

मेरे अनुग्रहके ध्यानसे आपने यह परम रहस्ययुक्त और अध्यात्मपूर्ण उपदेश मुझे दिया। इससे मेरा मोह दूर हो गया है।

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतो विस्तरशो मया ।

त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥ (११, २)

जीवोंकी उत्पत्ति और नाश दोनोंके विषय में मैंने विस्तारसे सुना। इसके अति- रिक्त आपके मुखसे हे कमलनयन, मैंने आपकी अजेय महिमा भी सुनी।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥ (११, ३)

हे परमेश्वर, आपने इस रीतिसे अपना जैसा वर्णन सुनाया है, मैं आपका वैसा ऐश्वर्यशाली रूप देखना चाहता हूँ ।

मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥ (११, ४)

हे प्रभु, यदि आप ऐसा मानते हों कि मैं उसे देखनेमें समर्थ हो सकता हूँ, तो मुझे अपना वह अव्यय स्वरूप बताइए।