पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
'श्रीमद् राजचन्द्र' की भूमिका

कि मैं कुछ समय उनकी जन्म भूमि बवाणीया[१] बन्दरगाहमें बिताऊँ, उनके रहनेका मकान देखूं, जहाँ वे खेले-कूदे उन स्थानोंको देखूं, उनके बालमित्रोंसे मिलूँ, उनकी शालामें हो आऊँ, उनके मित्रों, अनुयायियों, सगे-सम्बन्धियोंसे मिलूँ, उनसे जानने योग्य जानकारी हासिल कर लूँ और फिर लिखने बैठूं । इनमें से मैं किसी वस्तुके बारेमें कुछ नहीं जानता हूँ।

और अब तो संस्मरण लिखनेकी अपनी योग्यता और शक्तिके बारेमें भी मुझे सन्देह होने लगा है। मुझे याद है, मैंने अनेक बार यह कहा है कि अगर मुझे अव- काश मिला तो मैं उनके संस्मरण लिखूँगा। उनके एक शिष्यने जिनके प्रति मेरे मन में बहुत आदरभाव है, यह बात सुनी और मेरा यह प्रयत्न मुख्यतः उनके सन्तोषके लिए है। श्रीमद् राजचन्द्रके, जिन्हें मैं प्रेम और मानपूर्वक रायचन्दभाई अथवा कवि कहा करता था, संस्मरण लिखने और मुमुक्षुओंके सामने उनका रहस्य खोलनेकी बात मुझे अच्छी लगेगी। किन्तु अभी तो मेरा प्रयास केवल उक्त मित्रको सन्तोष देनेके लिए है। उनके संस्मरणोंको मैं पूर्ण न्याय दे सकूँ इसके लिए मुझे जैन दर्शनका परिचय होना चाहिए; मुझे स्वीकार करना चाहिए कि ऐसा नहीं है। अतः इन संस्मरणोंको लिखने में मैं अपना दायरा अत्यन्त सीमित रखनेवाला हूँ। मेरे जीवनपर जिन संस्मरणोंकी छाप पड़ी है मैं उनका विवरण और उनसे मुझे जो शिक्षा मिली है उसे देकर ही सन्तोष मानूंगा और आशा करूँगा कि जो लाभ मुझे मिला है वह अथवा वैसा ही लाभ उन संस्मरणोंसे मुमुक्षु पाठकोंको भी मिलेगा।

'मुमुक्षु" शब्दका प्रयोग मैंने जान-बूझकर किया है। मेरा यह प्रयास हर तरहके पाठकके लिए नहीं है।

मुझपर तीन पुरुषोंने गहरा प्रभाव डाला है। टॉलस्टॉय, रस्किन और राय- चन्दभाई। टॉलस्टॉयने अपनी एक पुस्तक - विशेष द्वारा और उनके साथ मेरा जो थोड़ा-सा पत्र-व्यवहार हुआ उसके द्वारा, रस्किनने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्टु दिस लास्ट ' के द्वारा—जिसका गुजराती नाम मैंने 'सर्वोदय' रखा है, और रायचन्दभाईने अपने निकट सम्पर्कके द्वारा। जिस समय मेरे मनमें हिन्दूधर्मके बारेमें शंका उत्पन्न हुई उस समय उसके निवारणमें मदद देनेवाले रायचन्दभाई ही थे। १८९३ में दक्षिण आफ्रिकामें मैं कुछ ईसाई सज्जनोंके सम्पर्क में आया। उनका जीवन निर्मल था, वे धर्मपरायण थे। अन्य धर्मावलम्बियोंको ईसाई बननेके लिए समझाना उनका मुख्य कार्य था। हालांकि उनसे मेरा सम्पर्क व्यावहारिक कार्यको लेकर ही हुआ था फिर भी वे मेरे आत्मिक कल्याणकी चिन्तामें लग गये। इससे मैं अपना एक कर्त्तव्य समझ सका। मुझे यह प्रतीति हो गई कि जबतक में हिन्दू धर्मके रहस्यको पूरी तरह नहीं समझ लेता और मेरी आत्माको उससे सन्तोष नहीं होता तबतक मुझे अपना जन्मका धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। इसलिए मैंने हिन्दू और अन्य धर्म-पुस्तकोंको पढ़ना आरम्भ किया। ईसाइयों और मुसलमानोंके धर्मग्रन्थोंको पढ़ा। लन्दनमें बने अपने अंग्रेज मित्रोंके साथ पत्र-व्यवहार किया। उनके सामने अपनी शंकाओंको रखा। उसी तरह हिन्दुस्तानमें

  1. सौराष्ट्र में।