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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भी जिन लोगोंपर मेरी थोड़ी-बहुत आस्था थी उनके साथ भी मैंने पत्र-व्यवहार किया। इनमें रायचन्दभाई मुख्य थे,[१] उनके साथ तो मेरे अच्छे सम्बन्ध स्थापित हो चुके थे। उनके प्रति मेरे मनमें आदरभाव था। इसलिए उनसे जो मिल सके उसे प्राप्त करनेका विचार किया। उसका परिणाम यह हुआ कि मुझे शान्ति मिली। मनको ऐसा विश्वास हुआ कि मुझे जो चाहिए वह हिन्दू धर्ममें है। इस स्थितिका श्रेय रायचन्दभाईको था; इसलिए पाठक स्वयं इस बातका अनुमान लगा सकते हैं कि उनके प्रति मेरा आदरभाव कितना नहीं बढ़ा होगा।

लेकिन तब भी मैंने उन्हें अपना धर्म-गुरु नहीं माना। धर्म-गुरुकी तो में शोध ही करता रहता हूँ और अभीतक तो मुझे सबके बारेमें 'नहीं, यह नहीं', उत्तर ही मिला है। ऐसे सम्पूर्ण गुरुके लिए जो अधिकार चाहिए सो में कहाँसे लाऊँ?

प्रकरण २

रायचन्दभाईके साथ मेरी पहली भेंट जुलाई १८९१ में जिस दिन में विलायतसे वापस बम्बई पहुँचा, उसी दिन हुई। इन दिनों समुद्रमें तूफान आया होता है। इसलिए जहाज देरसे पहुँचा और रात हो चुकी थी। मैं डाक्टर बैरिस्टर-और अब रंगूनके प्रख्यात झवेरी—प्राणजीवनदास मेहताके यहाँ ठहरा था। रायचन्दभाई उनके बड़े भाईके दामाद थे। स्वयं डाक्टरने ही उनसे मेरा परिचय करवाया। उनके दूसरे बड़े भाई झवेरी रेवाशंकर जगजीवनदाससे भी मेरा परिचय उसी दिन हुआ। डाक्टरने रायचन्दभाईका परिचय "कवि" कहकर दिया और मुझसे कहा, 'कवि होनेके बावजूद ये हमारे साथ व्यापारमें हैं; ज्ञानी हैं, शतावधानी हैं। "किसीने सुझाव दिया कि मैं उनके सामने कुछ शब्द कहूँ और वे शब्द चाहे किसी भी भाषाके क्यों न हों लेकिन जिस क्रममें में उन्हें कहूँगा उसी क्रममें वे उन्हें दुहरा देंगे। मुझे यह सुनकर आश्चर्य हुआ। एक तो मैं नौजवान, तिसपर विलायतसे आया था फिर अपने भाषा—ज्ञानको लेकर मुझे अहंकार भी था। मुझे उस समय विलायतकी हवा कोई कम नहीं लगी हुई थी । विलायतसे आया हुआ अर्थात् आकाशसे उतरा हुआ । मैंने अपना सारा ज्ञान उँडेल दिया; भिन्न-भिन्न भाषाओंके शब्दोंको पहले तो मैंने लिखा—क्योंकि मुझे क्रम कहाँ याद रहनेवाला था—और बादमें उन शब्दोंको मैं पढ़ गया। रायचन्दभाईने धीमे स्वरमें उन शब्दोंको (उसी क्रममें) एकके बाद एक दोहरा दिया। मैं बहुत खुश हुआ, मैं चकित हो गया और कविकी स्मरणशक्तिके बारेमें मेरे मनमें ऊँची धारणा बन गई। कहा जा सकता है कि विलायतके प्रभावको कम करनेके लिए यह अनुभव बहुत अच्छा रहा।

कविको अंग्रेजीका तनिक भी ज्ञान न था। उनकी आयु उस समय २५ वर्षसे अधिक न थी। गुजराती स्कूलमें भी वे ज्यादा नहीं पढ़े थे। तिसपर भी इतनी स्मरण-शक्ति, इतना ज्ञान और आसपासके लोगोंके मनमें उनके लिए इतना मान! इन सबसे मैं मोहित हो गया। स्मरणशक्ति स्कूलमें नहीं बेची जाती। ज्ञान भी स्कूलके

  1. देखिए परिशिष्ट १