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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आपकी दाढ़े भयंकर हैं, प्रलयकालकी अग्नि जैसे तुम्हारे मुखोंको देखकर मुझे दिशाएँ नहीं सूझती और न शान्ति ही मिल पा रही । इसलिए हे देवेश, हे जगत्के आश्रयस्थान, आप प्रसन्न हों ।

देखता हूँ कि धृतराष्ट्रके पुत्र, पृथ्वीका पालन करनेवाले राजाओंके समुदाय, भीष्म, द्रोण, कर्ण और हमारे पक्षके मुख्य योद्धाओं सहित सभी, शीघ्रतासे आपके मुखमें प्रवेश कर रहे हैं ।

आपके मुखमें प्रवेश करते हुए इन सबके सिर आपके दाँतोमें चूर्ण होते हुए दिखाई दे रहे हैं।

जैसे नदियोंके विपुल जलके ओघ समुद्रमें प्रवेश करते हैं इसी तरह इन शूरवीर मनुष्योंके समूह आपके प्रज्वलित मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं।

जैसे पतंगे सुलगती हुई ज्वालामें नष्ट होनेके लिए अति वेगसे प्रवेश करते हैं, उसी तरह ये सब लोग भी अपने नाशके लिए आपके मुखमें अति वेगसे प्रवेश कर रहे हैं ।

आप इन सभी लोगोंको प्रज्वलित मुखों द्वारा ग्रसित करते हुए सभी दिशाओंसे चाट रहे हैं। हे विष्णु, आपका उग्र प्रकाश इस सम्पूर्ण जगत्को अपने तेजके द्वारा तप्त कर रहा है ।

हे भगवन्, मुझे बताइए कि इस भयंकर रूपवाले आप कौन हैं । आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप मुझपर प्रसन्न हों। मैं आपका आरम्भ जानना चाहता हूँ । मैं आपकी प्रवृत्तिको समझ नहीं पा रहा हूँ ।

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मंगलवार, ७ सितम्बरमंगलवार, १९२६
 

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो

लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।

ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे

येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥ (११, ३२)

मैं लोकोंके नाशके लिए वृद्धिप्राप्त महाकाल हूँ। मैं लोकोंका संहार करनेके लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। इसलिए दोनों सेनाओंमें खड़े हुए योद्धाओंमें से तेरे युद्ध न करने- पर भी कोई भी नहीं बचेगा ।

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व

जित्वा शत्रून् भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम् ।

मयंवैते निहताः पूर्वमेव

निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ (११, ३३)

इसलिए तू खड़ा हो जा और कीर्तिलाभ कर । शत्रुपर विजय प्राप्त करके, समृद्धियुक्त राज्यका उपभोग कर। इनको तो मैं पहलेसे ही मार चुका हूँ। हे सव्य- साचिन्, तुझे तो केवल निमित्त मात्र होना है।