पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/३२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३९
'गीता-शिक्षण'

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय ।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्वं न संशयः ॥ (१२, ८)

तू अपना मन मुझमें ही लीन कर दे, अपनी बुद्धिको मुझमें ही केन्द्रित कर । उसी अवस्थामें तू मुझे प्राप्त कर सकेगा। मेरे इस कथनमें शंका मत कर ।

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्

अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ॥ (१२, ९)

यदि तू अपना चित्त मुझमें स्थापित न कर सके तो हे अर्जुन, अभ्यासयोगके द्वारा मुझे प्राप्त करनेकी इच्छा कर ।

अभ्यासयोग और ईश्वरपर ध्यान रखनेमें क्या अन्तर हो सकता है ? ऐसा जान पड़ता है कि अभ्यासयोगका अर्थ हुआ श्रवण, मनन, निदिध्यासन करना, ऐसे समाजमें जाकर बैठ जाना, भजन-कीर्तन सुनना; क्योंकि 'पत्रं पुष्पं फलं तोयं' सब-कुछ ईश्वरतक पहुँच जाता है।

[ १५८ ]

मंगलवार, १४ सितम्बर, १९२६
 

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।

मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ (१२, १०)

यदि तू इस प्रकार अभ्यासयोग करने में असमर्थ हो तो तुझे चाहिए कि तू मेरे प्रति परायण होकर मेरे ही लिए सारे कर्म कर । ऐसा करनेसे भी तुझे सिद्धि प्राप्त हो जायेगी, तू मुझे प्राप्त करेगा ।

अर्थतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ (१२, ११)

यदि तू इतना भी न कर सकता हो तो संयमी बनकर और मेरे योगका आश्रय करके, समस्त कर्मोके फलका त्याग कर। फल-प्राप्तिके लिए आतुर मत बन ।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्या गस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ (१२, १२)

अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञानसे ध्यान और ध्यानसे कर्मफल-त्याग बढ़कर है। इस तरह त्यागसे शान्ति मिलती है ।

यहाँ ज्ञानका अर्थ केवल विद्वत्ता नहीं, बल्कि हृदयका वास्तविक अनुभव है। वह फिर थोड़ा ही क्यों न हो । ऐसे ज्ञानसे ध्यान अर्थात् चित्तकी एकाग्रता श्रेष्ठ है । और ध्यानसे भी कर्मफल-त्यागको श्रेष्ठ बतलाया गया है। यह इस दृष्टिसे कहा

१. इस दिनका विवरण पूँजाभाईने लिखा था।