मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊध्वं न संशयः ॥ (१२, ८)
तू अपना मन मुझमें ही लीन कर दे, अपनी बुद्धिको मुझमें ही केन्द्रित कर । उसी अवस्थामें तू मुझे प्राप्त कर सकेगा। मेरे इस कथनमें शंका मत कर ।
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय ॥ (१२, ९)
यदि तू अपना चित्त मुझमें स्थापित न कर सके तो हे अर्जुन, अभ्यासयोगके द्वारा मुझे प्राप्त करनेकी इच्छा कर ।
अभ्यासयोग और ईश्वरपर ध्यान रखनेमें क्या अन्तर हो सकता है ? ऐसा जान पड़ता है कि अभ्यासयोगका अर्थ हुआ श्रवण, मनन, निदिध्यासन करना, ऐसे समाजमें जाकर बैठ जाना, भजन-कीर्तन सुनना; क्योंकि 'पत्रं पुष्पं फलं तोयं' सब-कुछ ईश्वरतक पहुँच जाता है।
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अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ (१२, १०)
यदि तू इस प्रकार अभ्यासयोग करने में असमर्थ हो तो तुझे चाहिए कि तू मेरे प्रति परायण होकर मेरे ही लिए सारे कर्म कर । ऐसा करनेसे भी तुझे सिद्धि प्राप्त हो जायेगी, तू मुझे प्राप्त करेगा ।
अर्थतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ (१२, ११)
यदि तू इतना भी न कर सकता हो तो संयमी बनकर और मेरे योगका आश्रय करके, समस्त कर्मोके फलका त्याग कर। फल-प्राप्तिके लिए आतुर मत बन ।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्या गस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ (१२, १२)
अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञानसे ध्यान और ध्यानसे कर्मफल-त्याग बढ़कर है। इस तरह त्यागसे शान्ति मिलती है ।
यहाँ ज्ञानका अर्थ केवल विद्वत्ता नहीं, बल्कि हृदयका वास्तविक अनुभव है। वह फिर थोड़ा ही क्यों न हो । ऐसे ज्ञानसे ध्यान अर्थात् चित्तकी एकाग्रता श्रेष्ठ है । और ध्यानसे भी कर्मफल-त्यागको श्रेष्ठ बतलाया गया है। यह इस दृष्टिसे कहा
१. इस दिनका विवरण पूँजाभाईने लिखा था।