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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गया कि ध्यान करनेवाला व्यक्ति कदाचित् अपनेको ही छल रहा हो। इसके सिवाय ज्ञानका अर्थ अन्तमें होनेवाला साक्षात्कार नहीं है । यहाँ ज्ञान और ध्यानके अधूरे अर्थको लक्ष्यमें रखकर श्रेष्ठताकी बात कही गई है । कर्मफल-त्यागका उल्लेख सबसे बादमें किया है। वास्तवमें तो यह सबसे पहली चीज है। कर्मफलका त्याग करनेवाला व्यक्ति अहंकारहीन हो जाता है।

अब ऐसे व्यक्तिके लक्षण बताते हैं :

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।

निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ (१२, १३)

यह व्यक्ति सभी प्राणियोंके प्रति इतना ही नहीं कि द्वेष नहीं रखता, बल्कि सबके प्रति मित्रभाव और करुणा रखता है तथा ममत्व और अहंकाररहित होकर सुख और दुःखमें समान भाव रखता है और क्षमाशील होता है ।

मित्रभाव तो बराबरीवालोंके प्रति ही रखा जाता है, किन्तु सबके प्रति करुणा- भाव रखना चाहिए । हमें चाहिए कि हम किसी कुत्तेको डंडा फेंककर न मारें । माता-पिता अथवा शिक्षक हमारे साथ ऐसा बरताव करें तो हमें कैसा लगे । हम अपने माता-पिताके आज्ञाकारी बालक हों, तो भी ऐसा व्यवहार करनेवाले पिताके प्रति हमारा भाव क्या होगा? हम यहाँ इस बातकी बहसमें नहीं पड़ेंगे कि कुत्तेके प्रति हमारा क्या धर्म है। फिर भी इतना तो निश्चय ही है कि हमारा धर्म कुत्तेको मारना तो कदापि नहीं है । कुत्ता हमें काट खाये तो भी यदि हम उसके प्रति क्रोध न करें तो इसे ही क्षमा कहा जा सकेगा। "जैसेके साथ तैसा" होना अच्छा नियम नहीं है। इसमें क्षमाभाव तो है ही नहीं। नीचके साथ नीच बननेसे क्या लाभ हो सकता है ? इससे उलटे यदि नीचके प्रति भी प्रेमभाव, करुणाभाव और क्षमाभाव रखें तो उससे दोनोंका ही फायदा होगा।

ममत्वहीन और निरहंकारका भेद समझना चाहिए। निर्मम अथवा ममत्वहीन- का मतलब हुआ मेरा-तेराका भेद न करनेवाला, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' में विश्वास करनेवाला; और निरहंकारका अर्थ हुआ कि अमुक काम मैंने किया है ऐसा न कहकर ईश्वरने किया है, ऐसा माननेवाला व्यक्ति ।

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बुधवार, १५ सितम्बर, १९२६
 

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।

मयपतमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ (१२, १४)

जो निरन्तर सन्तुष्ट है, सदा ध्यानमें लीन है, जो इन्द्रियोंको वशमें रखता है, दृढ़ निश्चयवाला है और जिसने अपने मन तथा बुद्धिको मुझे अर्पित कर रखा है, मेरा एसा भक्त तो मुझे प्रिय है।