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'गीता-शिक्षण'

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः ।

हर्षामर्षभयोर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ (१२, १५)


लोग जिससे उद्विग्न नहीं होते और जो लोगोंसे उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्षं, ईर्ष्या, भय आदि उद्वेगोंसे मुक्त है [ वही मुझे प्रिय है ] ।

'अद्वेष्टा' शब्दमें श्लोकका भाव आ ही जाता है ।

अनपेक्षः शुचिर्वक्ष उदासीनो गतव्यथः ।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥ (१२, १६ )

जो आकांक्षारहित है, शुद्ध और कुशल है; पक्षपात रहित है, दुःखोंसे मुक्त है। तथा समस्त आरम्भोंका त्याग करनेवाला है, मेरा वह भक्त मुझे प्रिय है ।

पूरे बारहवें अध्यायमें भक्तके लक्षण दिये गये हैं । 'स्थितप्रज्ञ' सम्बन्धी श्लोकों- के साथ इनका मिलान करें तो वे सब इन्हीं इलोकों-जैसे लगेंगे ।

ईश्वरका भक्त सिवाय ईश्वरके किससे आशा रखे ? शुचिका अर्थ है जिसका मन और शरीर दोनों पवित्र हों, ऐसा व्यक्ति । दक्ष अर्थात् जो काम लिया है उसे भगवानका नाम लेकर ही करनेवाला व्यक्ति । 'उदासीन' अर्थात् अनेक योजनाओंकी रचना करनेपर सफलता न मिल रही हो फिर भी जो बिलकुल चिन्ता न करे ।

'सर्वारम्भपरित्यागी' अर्थात् वह व्यक्ति जो कामको खोजने नहीं निकलता बल्कि काम जिसको खोजते हुए आता है। उससे जो काम लिया जाना है उसे स्वयं भग- वान निश्चित करके उसे सौंप देते हैं। वह यह मानकर कि ईश्वर हमारा सारा भार स्वयं उठा लेगा, सब-कुछ ईश्वरपर छोड़ देता है । दासको कामकी खोजमें जानेका अधिकार ही नहीं है ।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति ।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ (१२, १७)

जो हर्ष अथवा द्वेषको प्राप्त नहीं होता, जो न शोक करता है, न कामना करता है, बल्कि जो शुभ और अशुभ सभी कर्मोंका फल त्याग देता है, मेरा ऐसा भक्त मुझे प्रिय है ।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः ॥

तुल्यनिन्दास्तुतिमानी सन्तुष्टो येनकेनचित् ।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ।। ( १२, १८-१९)

निन्दा और स्तुति जिसके लिए समान है, जो मननशील है, जो जैसे-तैसे शरीर- का निर्वाह करके सन्तोष मान लेता है, अपना घर कहने योग्य जिसके पास कुछ नहीं होता, ऐसा स्थिरबुद्धि युक्त मेरा भक्त मुझे प्रिय है ।

रायचन्दभाईने कहा है : " वन्दे चक्री तथापि न माने मान जो"--: जो चक्र- वर्तीके द्वारा प्रणाम किये जानेपर भी अभिमान नहीं मानता ।