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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥ (१२, २०)'

इस धर्ममय अमृतका जो निष्कामभावसे सेवन करता है, मुझमें परायण और मुझमें श्रद्धा रखनेवाला मेरा ऐसा भक्त मुझे अतिशय प्रिय है।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके नाते हमारे काम तो हमारे सामने हैं ही। जो व्यक्ति अपने इन कामोंको आशारहित और निस्पृह भावसे करता है, वह ईश्वर- का भक्त है। दूसरे अध्यायमें 'स्थितप्रज्ञ' सम्बन्धी श्लोक हैं। उनमें किसी अवधूत योगीकी दशाका वर्णन है। इस बारहवें अध्यायमें भक्तकी दशाका हमारी सामान्य भाषामें वर्णन किया गया है।

अध्याय १३

[ १६० ]

गुरुवार, १६ सितम्बर, १९२६
 

इस तेरहवें अध्यायसे एक नई ही बात शुरू होती है। इसमें शरीर और शरीरके स्वरूपके विषय में विचार किया गया है ।

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।

एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ (१३, १)

हे अर्जुन, इस शरीरको क्षेत्र कहा गया है और जो इसे जानता है उस विद्वानको क्षेत्रज्ञ कहा गया है ।

इस शरीरमें पाण्डव और कौरव अर्थात् दैवी और आसुरी विचारोंका युद्ध हो रहा है। ईश्वर दूर खड़ा होकर इस युद्धको देख रहा है। आप लोग ऐसा न मानें कि यह बात हस्तिनापुरके एक छोटे से क्षेत्रमें चलनेवाले युद्धके विषयसे सम्बन्धित है। यह युद्ध तो आज भी चल रहा है। 'धर्मक्षेत्र 'का अर्थ समझने के लिए इसी श्लोकका उपयोग किया जाना चाहिए ।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥ (१३, २)

सभी क्षेत्रोंके अन्तर्गत रहनेवाला, सभी क्षेत्रोंका साक्षी क्षेत्रज्ञ मैं हूँ । जो क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ इन दोनोंको अलग करके जानता है, वह सब कुछ जानता है।

क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ इन दोनोंमें से किसकी सेवा करनी है, किसकी शरणमें जाना है, यदि इसका विचार करते हुए हमारा पूरा जीवन व्यतीत हो जाये तो कहा जा सकता है कि शरीर थोड़ा-बहुत सार्थक हुआ।